Hindi Kahaniya With Moral आज आपके लिए तीन महान गुरुभक्तों की कहानी लेके आया हूँ जिन्होंने गुरुभक्ति के आशीर्वाद से समस्त ज्ञान बिना पढ़े ही पा लिया।
गुरुभक्त बालक आरुणि
महर्षि आयोदधौम्य के तीन शिष्य बहुत प्रसिद्ध हैं – आरुणि, उपमन्यु और वेद। इनमें से आरुणि अपने गुरुदेव के सबसे प्रिय शिष्य थे और सबसे पहले सब विद्या पाकर यही गुरु के आश्रम के समान दूसरा आश्रम बनाने में सफल हुए थे। आरुणि को गुरु की कृपा से सब वेद, शास्त्र, पुराण आदि बिना पढ़ें ही आ गये थे। सच्ची बात यही है कि जो गुरु देव की सेवा और कृपा से आती है; वही विद्या सफल होती है। उसी विद्या से जीवन का सुधार और दूसरों का भी भला होता है। जो विद्या गुरुदेव की सेवा के बिना पुस्तकों को पढ़कर आ जाती है, वह अहंकार को बढ़ा देती है। उस विद्या का ठीक-ठाक उपयोग नहीं हो पाता।
महर्षि आयोदधौम्य आश्रम में बहुत-से-शिष्य थे। वे सब अपने गुरुदेव की बड़े प्रेम से सेवा किया करते थे। एक दिन शाम के समय वर्षा होने लगी। वर्षा ऋतु बीत गयी थी। आगे भी वर्षा होगी या नहीं, इसका कुछ ठीक-ठिकाना नहीं था। वर्षा बहुत जोर से हो रही थी। महर्षि ने सोचा कि कहीं अपने धान के खेत की मेड़ अधिक पानी भरने पर टूट जायेगी तो खेत में से सब पानी बह जायेगा। पीछे फिर वर्षा न हो तो धान बिना पानी के सूख ही जाएगी। उन्होंने आरुणि से कहा-‘बेटा आरुणि ! तुम खेत पर जाओ और देखो, कहीं मेड़ टूटने से खेत का पानी निकल न जाए।’
अपने गुरुदेव की आज्ञा से आरुणि उस समय वर्षा में भीगते हुए खेत पर चला गया। वहाँ जाकर उसने देखा कि धान के खेत की मेड़ एक स्थान पर टूट गयी है और वहाँ से बड़े जोर से पानी बाहर जा रहा है। आरुणि ने वहाँ मिट्टी रखकर मेड़ बाँध देना चाहा। पानी वेग से निकल रहा था और वर्षा से मिट्टी गीली हो गयी थी, इसलिए आरुणि जितनी मिट्टी मेड़ बाँधने को रखता था, उसे पानी बहा ले जाता था। बहुत देर परिश्रम करके भी जब आरुणि मेड़ न बाँध सके तो वे उस टूटी मेड़ के पास स्वयं लेट गये। उनके शरीर से पानी का बहाव रुक गया।
रातभर आरुणि पानी भरे खेत में मेड़ से सटे सोये पड़े रहे। सर्दी से उनका सारा शरीर अकड़ गया, लेकिन गुरुदेव के खेत का पानी बहने न पावे, इस विचार से वे न तो तनिक भी हिले और न उन्होंने करवट बदली। शरीर में भयंकर पीड़ा होते रहने पर भी वे चुपचाप पड़े रहे।
सबेरा होने पर संध्या और हवन करके सब विद्यार्थी गुरुदेव को प्रणाम करते थे। महर्षि आयोदधौम्य ने देखा कि आज सबेरे आरुणि प्रणाम करने नहीं आया। महर्षि दूसरे विद्यार्थियों से पूछ -‘आरुणि कहाँ है ?
विद्यार्थियों ने कहा-‘कल शाम को आपने आरुणि को खेत की मेड़ बाँधने को भेजा था, तबसे वह लौटकर नहीं आया।’
महर्षि उसी समय दूसरे विद्यार्थियों को साथ लेकर आरुणि को ढूँढने निकल पड़े। उन्होंने खेतपर जाकर आरुणि को पुकारा। आरुणि से ठण्ड के मारे बोला तक नहीं जा रहा था। उसने किसी प्रकार अपने गुरुदेव की पुकार का उत्तर दिया। महर्षि ने वहाँ पहुँचकर उस आज्ञाकारी शिष्य को उठाकर हृदय से लगा लिया, और आशीर्वाद दिया-‘पुत्र आरुणि ! तुम्हें सब विधाएँ अपने-आप ही आ जाएँ।’ गुरुदेव के आशीर्वाद से आरुणि को सभी विधाओं का ज्ञान अपने आप ही हो गया और आरुणि बड़े भारी विद्वान गये।
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गुरुभक्त बालक उपमन्यु
महर्षि आयोदधौम्य अपनी विद्या, तपस्या और विचित्र उदारता के लिए बहुत प्रसिद्द हैं। वे ऊपर से तो अपने शिष्यों से बहुत कठोरता करते प्रतीत होते थे; किन्तु भीतर से शिष्यों पर उनका अपार स्नेह था। वे अपने शिष्यों को अत्यन्त सुयोग्य बनाना चाहते थे। इसलिये जो ज्ञान के सच्चे जिज्ञासु थे, वे महर्षि के पास बड़ी श्रद्धा से रहते थे। महर्षि के शिष्यों में से एक बालक का नाम था उपमन्यु। गुरुदेव ने उपमन्यु को अपनी गायें चराने का काम दे रखा था। वे दिनभर वनमें गायें चराते और सायंकाल आश्रम में लौट आया करते। एक दिन गुरुदेव ने पूछा-‘बेटा उपमन्यु ! तुम आजकल भोजन क्या करते हो ?”
उपमन्यु ने नम्रता से कहा–‘भगवन ! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।’
महर्षि बोले-‘वत्स ! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिये। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिये। उसमें से गुरु यदि कुछ दे दें तो उसे ग्रहण करना चाहिये।’
उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य की श्रद्धा को दृढ़ करना था, अतः वे सब भिक्षा का अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद फिर जब गुरुदेव ने पूछा –उपमन्यु ! तुम आजकल क्या खाते हो ?’ तब उपमन्यु ने बताया कि “मैं एक बारकी भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दोबारा अपने लिए भिक्षा माँग लाता हूँ।’ महर्षि ने कहा–दोबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा मांगने मत जाया करो।
उपमन्यु ने कहा-‘जो आज्ञा !’ उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि ‘मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।’
महर्षि बोले-‘यह तो ठीक नहीं। गायें जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।
उपमन्यु ने दूध पीना भी छोड़ दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा -‘उपमन्यु ! तुम दोबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो ? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले -जैसा दुर्बल नहीं दिखायी पड़ता।’
उपमन्यु ने कहा-‘भगवन ! मैं बछड़ों के मुख से जो फेन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।’
महर्षि बोले-‘बछड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फेन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।’
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अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाये गायों को चराते हुए उन्हें वन-वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असहन हो गयी, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिये। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अन्धे हो गये। उन्हें कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता था। गायों के चलने का शब्द सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक जलरहित कुआँ पड़ा और उपमन्यु उसमें गिर पड़ें। जब अँधेरा होने पर सब गायें लौट आयीं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिन्ता हुई। वे सोचने लगे-‘मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दुःखी होकर वह भाग तो नहीं गया।’ उसे वे जंगल में ढूंढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे –“बेटा उपमन्यु ! तुम कहाँ हो ?’
उपमन्यु कुएँ में से उत्तर दिया-‘भगवन ! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।’ महर्षि समीप आये और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मन्त्रों से उन्होंने अश्विनी कुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धा पूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गये। उन्होंने नेत्र अच्छे करके एक पुआ उपमन्यु को देकर खा लेने को कहा; किन्तु उपमन्यु ने अपने गुरुदेव को अर्पित किये बिना वह पुआ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनी कुमारों ने कहा-‘तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किये बिना पहले हमारा दिया पुआ प्रसाद मानकर खा लिया था।’
उपमन्यु ने कहा-‘वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो; पर मैं उनकी आज्ञा को नहीं टालूंगा।’ इस गुरु भक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनी कुमारों ने उन्हें समस्त विधाएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले, तब महर्षि आयोदधौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को हृदय से लगा लिया।
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गुरुभक्त बालक उत्ताड़क
महर्षि आयोदधौम्य के शिष्य महर्षि वेद ने अपने ब्रह्मचर्याश्रम के जीवन में गुरु-गृह में अनेक कष्ट भोगे थे। उन कष्टों का स्मरण करके अपने यहाँ अध्ययन के लिए आने वाले किसी बालक को वे किसी कार्य में नियुक्त नहीं करते थे और न उनसे अपनी सेवा ही लेते थे। उनके शिष्यों में प्रधान थे उत्ताड़क। एक बार जब महर्षि वेद अपने आश्रम से किसी यात्रा पर जाने लगे, तब उन्होंने उत्ताड़क को अपनी अनुपस्थिति में अपना समस्त कार्य सम्हालने की आज्ञा दी। महर्षि वेद की पत्नी के मन में यह बात आयी कि इस थोड़ी अवस्था के बालक पर उनके पतिदेव ने आश्रम का पूरा उत्तरदायित्व क्यों सौंपा। अतएव उन्होंने उत्ताड़क की परीक्षा लेने का विचार किया। ऋषिपत्नी ने कहा-‘उत्ताड़क ! महर्षि ने जाते समय तुम्हें आज्ञा दी है कि उनकी अनुपस्थिति में उनके सभी कार्यों को संपन्न करो। मैं ऋतुमती हूँ, अतः तुम्हें मेरे ऋतु को सफल करने का, महर्षि का कार्य भी पूरा करना चाहिये।
उत्ताड़क थोड़ी देर विचार करके बड़ी नम्रता से प्रार्थना की–‘आप मेरे गुरुदेव की पत्नी हैं। आपकी आज्ञा से आपकी प्रसन्नता के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूँ; किन्तु माता ! आप मुझे ऐसा अनुचित काम करने की आज्ञा न दें; यह पाप मैं नहीं कर सकूँगा।’
उत्ताड़क दृढ़ श्रद्धा और संयम देखकर गुरु पत्नी प्रसन्न हो गयीं। जब महर्षि वेद लौटे, तब उनकी पत्नी ने स्वयं उनसे सब बातें बतायीं; क्योंकि उन्होंने तो उत्ताड़क की केवल परीक्षा लेना चाहा था। सब बातें सुनकर महर्षि उत्ताड़क को आशीर्वाद दिया–‘बेटा!तुम्हारी समस्त कामनाएँ पूर्ण हों। तुम्हें समस्त ज्ञान स्वतः प्राप्त हो जाय।’
अब उत्ताड़क गुरुदेव को गुरु दक्षिणा देने की इच्छा प्रकट की। महर्षि ने गुरु पत्नी से पूछने को कहा। पूछने पर गुरु पत्नी ने बताया कि “महर्षि के दूसरे शिष्य राजा पोष्य की पतिव्रता पत्नी के कानों में जो अमृत स्त्रावी कुण्डल हैं, उन्हें पर्व के अवसर पर मैं पहनना चाहती हूँ।’ पर्व का समय केवल चार दिन शेष था। उत्ताड़क राजा के पास वह कुण्डल माँगने चल पड़े।
देवराज इन्द्र ने देखा कि नागराज तक्षक बहुत दिनों से उन कुण्डलों को हरण करना चाहता है। राजा की पतिव्रता पत्नी के पास से कुण्डलों को लेने का तो उसमें साहस नहीं, पर यदि उत्ताड़क उन कुण्डलों को लेकर चले तो तक्षक किसी-न-किसी रूप में अवश्य कुण्डलों का हरण कर लेंगे। यद्यपि नागराज तक्षक इन्द्र के मित्र हैं, किन्तु देवराज होने के कारण इन्द्र को यह उचित जान पड़ा कि वे उत्ताड़क की सहायता करें। एक संयमी, तपस्वी, गुरुभक्त ब्राहाण-बालक यदि अपनी गुरुपत्नी को उनकी माँगी दक्षिणा न दे सके तो उसे कितना खेद होगा, यह देवराज जानते थे और यह भी जानते थे कि उस समय उस तेजस्वी बालक के क्रोध को शांत करना सरल नहीं हो सकता। वह शाप देकर किसी भी लोकपाल को पदच्युत कर सकता है। अतः इन्द्र ने सहायता देने का उपाय पहले से निश्चित कर लिया। उत्ताड़क को राजा की पत्नी ने बड़ी श्रद्धा से अपने वे देवदुर्लभ कुण्डल दे दिये। छल करके तक्षक ने उन कुण्डलों को मार्ग में ही चुरा लिया; किन्तु इन्द्र की सहायता से पाताल जाकर उत्ताड़क ने फिर कुण्डलों को प्राप्त किया और समय से पहले ही गुरुपत्नी को उन्हें अर्पित किया।
जिसमें पूरा संयम और अटल गुरुभक्ति है, उसके निश्चय को भला त्रिलोकों में कोई भी व्यर्थ कैसे कर सकता है ?
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