Hindi Stories on Honesty
ज्ञान और प्रेरणा से भरी प्राचीन कहानियाँ
साग-सब्जी वाले लड़के की सच्चाई
किसी बाजार में एक लड़का साग-सब्जी की दूकान लगाकर बैठा था और उसके पड़ोस में एक दूसरा लड़का भी साग-सब्जी बेचता था। एक दिन दोपहर को एक आदमी पहले लड़के की दुकान पर आकर एक बड़ा तरबूज हाथ में लेकर बोला–‘यह तरबूज अच्छा है ?’
लड़के ने जवाब देते हुए कहा–‘महाशय जी ! देखने में तो अच्छा जान पड़ता है;पर वह सड़ा और फीका है।’ इससे उस आदमी ने दूसरे की दुकानपर जाने के पहले उस लड़के से कहा–‘तू ईमानदार है, इससे तेरी बिक्री नहीं होगी।’
लड़के ने जवाब दिया–‘मैं सच-सच कहकर बेचूँगा, लेने की इच्छा होगी तो लेगा। मैं गलत नहीं बोलूँगा।’वह आदमी फिर पड़ोस की दुकानपर गया और उससे पूछा–‘लड़के ! यह ककड़ी ताजी है ?’ लड़के ने जवाब दिया–‘हाँ साहब ! ताजी है’.उस आदमी ने ककड़ी खरीद ली और वह घर गया।
उसके बाद ककड़ी वाले लड़के ने उस तरबूज वाले लड़के से कहा–‘तू मुर्ख है। अपने माल के लिये ऐसा नहीं कहना चाहिये। देख,मैंने अपनी ककड़ी ताजी कहकर बेच दी; वह तो तीन दिनकी थी, फिर भी बिक गयी। अब तुझको अपना तरबूज फेंक देना पड़ेगा।’
यह सुनकर उस लड़के ने कहा–मैं कभी झूठ न बोलूँगा। नहीं बिके तो इसकी मुझे फिक्र नहीं पर मैं सच बोलता हूँ, इससे मुझ को बहुत शांति मिलती है और परमेश्वर इसका अंत में बदला देता ही है।
उस आदमी ने जब ककड़ी खायी तो मालूम हुआ कि उस लड़के ने ठग लिया है। इससे दूसरे दिन से वह उस फलवाले लड़के की दुकान से ही सब सामान लेने लगा। उस ककड़ी बेचने वाले की दूकान से वह कुछ भी नहीं लेता था।
धीरे-धीरे उस साग-भाजी बेचने वाले लड़के की ईमानदारी की बात शहर में फ़ैल गयी और उसके यहाँ बहुत ग्राहक आने लगे। अंत में वह बड़ा व्यापारी हो गया और उस पड़ोसी लड़के की पहले जैसी कंगाल हालत रही।
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सच्चाई और ईमादारी से जुड़ी कहानियाँ
ईमानदार गरीब बालक
एक गरीब लड़का था। घर में उसकी माँ थी और एक छोटी बहिन। बहिन बीमार थी। वह उसकी दवा कराने के लिये अपने चाचा से कहने जा रहा था। रास्ते में उसे एक पॉकेट बुक पड़ी मिली उसमें 120 नोट थे।
लड़का बड़ा ईमानदार था। उसने अपने मन में निश्चय कर लिया कि ‘यह जिसकी पॉकेट बुक है, उसका पता लगाकर उसे जरूर दूँगा।’ उसने घर आकर अपनी माँ से सब हाल सुनाकर कहा–‘माँ ! जिस बेचारे की पॉकेट बुक खोयी है, उसको बड़ी चिंता हो रही होगी; क्योंकि इसमें उसके रुपये हैं। हम ये रुपये रख लेंगे तो बहुत पाप होगा और प्रभु हम पर नाराज होंगे; पर जिसके रुपये खोये हैं, उसका पता कैसे लगे ?
माँ ! तू कोई उपाय बता, जिससे मैं उसे खोज पाऊँ।’ लड़के की माँ भी बड़ी ईमानदार थी तभी तो उसको ऐसा पुत्र हुआ। वह पुत्र की बात सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई। उसने कहा–‘बेटा !भगवान तेरी नीयत की सच्चाई इसी प्रकार दृढ़ रखें। तेरा कल्याण हो। बीटा ! किसी अख़बार में खबर देने से इसका मालिक अपने आप ही आकर ले जायेगा।’
लड़का अख़बार वाले के पास गया। उसकी नेकनीयत देखकर अख़बार वाले ने उसके नाम से यह विज्ञप्ति छाप दी–‘मुझे एक पॉकेट बुक रास्ते में मिली है, उसमे एक सौ बीस रुपये के नोट हैं। जिसकी हो, वह अमुक पतेपर आकर सबूत देकर ले जाय।’ विज्ञप्ति पढ़कर पॉकेट बुक का मालिक आया और इतनी गरीबी में भी ऐसी ईमानदारी देखकर चकित हो गया।
उसने कहा–‘जो गरीब होकर भी दूसरों के पैसों पर जी नहीं ललचाता, वही सच्चा ईमानदार है और वही प्रशंसा के योग्य है तथा सचमुच गरीब ही ऐसे ईमानदार होते हैं। पैसेवाले तो प्रायः अभाव न होनेपर भी, पैसे के लोभ में पड़कर बेईमान हो जाते हैं। तुम धन्य हो।
जो इस प्रकार प्रभुपर विश्वास रखकर अपने सत्यपर डटे रहे।’ यह कहकर उसने वे नोट लड़की की दवा और सेवा के लिये आग्रह करके दे दिये और लड़के को अपने यहाँ अच्छी नौकरी दे दी। लड़का अपनी ईमानदारी के बलपर आगे चलकर नामी और धनी व्यापारी बना।
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क्रोध द्वारा मनुष्य स्वयं की क्षति करता है
सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् होते हुए भी महाराजा अंबरीष भौतिक सुखों से परे थे और सतोगुण के प्रतीक माने जाते थे। एक दिन वे एकादशी व्रत का पारण करने को थे कि महर्षि दुर्वास अपने शिष्यों के सहित वहां पहुंच गए। अंबरीष ने उनसे शिष्यों सहित भोजन ग्रहण करने का निमंत्रण दिया, जिसे दुर्वासा ने स्वीकार कर कहा, ‘ठीक है राजन्, हम सभी यमुना-स्नान करने जाते हैं और उसके बाद प्रसाद ग्रहण करेंगे।’
महर्षि को लौटने में विलंब हो गया और अंबरीष के व्रत-पारण की धड़ी आ पहुंची। राजगुरू ने उन्हें परामर्श दिया कि ‘आप तुलसी-दल के साथ जल पीकर पारण कर लें। इससे पारण-विधि भी हो जाएगी और दुर्वासा को भोजन कराने से पूर्व ही पारण कर के पाप से भी बच जाएंगे।’ अंबरीष ने जल ग्रहण कर लिया।
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महान गुरुभक्तों की सच्ची कहानियाँ
दुर्वासा मुनि लौटे तो उन्होंने योगबल से राजन् का पारण जान लिया और इसे अपना अपमान समझकर महर्षि ने क्रोधित होकर अपनी एक जटा नौंची और अंबरीष पर फेंक दी। वह कृत्या नामक राक्षसी बनकर राजन् पर दौड़ी। भगवान विष्णु का सुदर्शन-च्रक, जो राजा अंबरीय की सुरक्षा के लिए वहां तैनात रहता था, दुर्वासा को मारने उनके पीछे दौड़ा। दुर्वासा ने इन्द्र, ब्रहमा और शिव की स्तुति कर उनकी शरण लेनी चाही, लेकिन सभी ने अपनी असमर्थता जतायी।
लाचार होकर वे शेषशायी विष्णु की शरण गए, जिनका सुदर्शन-चक्र अभी भी मुनि का पीछा कर रहा था। भगवान विष्णु ने भी यह कहकर विवशता जताई कि मैं तो स्वयं भक्तों के वश में हूं। तुम्हें भक्त अंबरीष की ही शरण में जाना चाहिए, जिसे निर्दोष होते हुए भी तुमने क्रोधवश प्रताड़ित किया है। हारकर क्रोधी दुर्वासा को राजा अंबरीष की शरण में जाना पड़ा। राजा ने उनका चरण-स्पर्श किया और सुदर्शन-च्रक लौट गया।
तात्पर्य यह है कि क्रोध ऐसा तमोगुण है जिसका धारणकर्ता दूसरों के सम्मान का अधिकारी नहीं रह जाता, यहां तक कि भगवान् भी उसे अपनी शरण नहीं देते।
गीता भी कहती हैं-
क्रोध से मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है।
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सच्चे और ईमानदार बालकों की कहानी
दूसरों में ‘अच्छाइयाँ’ ढूँढे ‘बुराइयाँ’ नहीं
एक दिन श्रील चेतन्य महाप्रभु पुरी (उड़ीसा) के जगन्नाथ मंदिर में ‘गुरूड़ स्तंभ’ के सहारे खड़े होकर दर्शन कर रहे थे। एक स्त्री वहां श्रद्धालु भक्तों की भीड़ को चीरती हुई देव-दर्शन हेतु उसी स्तंभ पर चढ़ गई और अपना एक पांव महाप्रभुजी के दाएं कंधे पर रखकर दर्शन करने में लीन हो गई।
यह दृशय देखकर महाप्रभु का एक भक्त घबड़ाकर धीमे स्वर में बोला, ‘हाय, सर्वनाश हो गया! जो प्रभु स्त्री के नाम से दूर भागते हैं, उन्हीं को आज एक स्त्री का पाँव र्स्पश हो गया! न जाने आज ये क्या कर डालेंगे।’ वह उस स्त्री को नीचे उतारने के लिए आगे बढ़ा ही था कि उन्होंने सहज भावपूर्ण शब्दों में उससे कहा -‘अरे नहीं, इसको भी जी भरकर जगन्नाथ जी के दर्शन करने दो, इस देवी के तन-मन-प्राण में कृष्ण समा गए हैं, तभी यह इतनी तन्मयी हो गई कि इसको न तो अपनी देह और मेरी देह का ज्ञान रहा…..अहा! ठसकी तन्मयता तो धन्य है……इसकी कृपा से मुझे भी ऐसा व्याकुल प्रेम हो जाए।’
निष्कर्ष:
काम करते समय दूसरों की गलतियों की बजाय अच्छाइयां दूँढ़ना अपनी आदत में लें, जिससे हमारे काम की गुणवत्ता बढ़े और समय की बचत हो। साथ में यह आदत हमारे शिष्ट-व्यवहार को दर्शाएगी।
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मनुष्य सब कुछ कर सकता है
एक समय शराब का एक व्यसनी एक संत के पास गया और विनम्र स्वर में बोला, ‘गुरूदेव, मैं इस शराब के व्यसन से बहुत ही दुखी हो गया हूँ। इसकी वजह से मेरा घर बरबाद हो रहा है। मेरे बच्चे भूखे मर रहे हैं, किन्तु मैं शराब के बगैर नही रह पाता! मेरे घर की शांति नष्ट हो गयी है।
कृपया आप मुझे कोई सरल उपाय बताएँ, जिससे मैं अपने घर की शांति फिर से पा सकूँ।’ गुरूदेव ने कहा, ‘जब इस व्यसन से तुमको इतना नुकसान होता है, तो तुम इसे छोड़ क्यों नहीं देते?’ व्यक्ति बोला, ‘पूज्यश्री, मैं शराब को छोड़ना चाहता हूं, पर यह ही मेरे खून में इस कदर समा गयी है कि मुझे छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही है।’
गुरूदेव ने हँस कर कहा, ‘कल तुम फिर आना! मैं तुम्हें बता दूँगा कि शराब कैसे छोड़नी है?’
दूसरे दिन निश्चित समय पर वह व्यक्ति महात्मा के पास गया। उसे देख महात्मा झट से खड़े हुए और एक खम्भे को कस कर पकड़ लिया। जब उस व्यक्ति ने महात्मा को इस दशा में देखा, तो कुछ समय तो वह मौन खड़ा रहा, पर जब काफी देर बाद भी महात्माजी ने खम्भे को नहीं छोड़ा, तो उससे रहा नहीं गया और पूछ बैठा, कि ‘गुरूदेव, आपने व्यर्थ इस खम्भे को क्यों पकड़ रखा है?’ गुरूदेव बोले, ‘वत्स! मैंने इस खम्भे को नहीं पकड़ा है,
यह खम्भा मेरे शरीर को पकड़े हुए है। मैं चाहता हूँ कि यह मुझे छोड़ दे, किन्तु यह तो मुझे छोड़ ही नहीं रहा है।’ उस व्यक्ति को अचम्भा हुआ! व्ह बोला, ‘गुरूदेव मैं शराब जरूर पीता हूँ, मगर मूर्ख नहीं हूँ। आपने ही जानबूझ कर इस खम्भे को कस कर पकड़ रखा है।
यह तो निर्जिव है, यह आपको क्या पकड़ेगी यदि आप दृढ़-संकल्प कर लें, तो इसी वक्त इसको छोड़ सकते हैं। गुरूदेव बोले, ‘नादान मनुष्य, यही बात तो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ कि जिस तरह मुझे खम्भे ने नहीं बल्कि मैंने ही उसे पकड़ रखा था, उसी तरह इस शराब ने तुम्हें नहीं पकड़ा है, बल्कि सच तो यह है कि तुमने ही शराब को पकड़ रखा है।
तुम कह रहे थे कि यह शराब मुझे नहीं छोड़ रही है। जबकि सत्य यह है कि तुम अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लो कि मुझे इस व्यसन का त्याग अभी कर देना है, तो इसी वक्त तुम्हारी शराब पीने की आदत छूट जायेगी। शरीर की हर क्रिया मन के द्वारा नियंत्रित होती है और और मन में जैसी इच्छा-शक्ति प्रबल होती है, वैसा ही कार्य सफल होता है।
‘वह शराबी गुरू के इस अमृत-वचनों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसी वक्त भविष्य में कभी शराब न पीने का दृढ़-संकलप किया। उसके घर में खुशियाँ लौट आयीं और वह शांति से जीवन-यापन करने लगा।
इस तरह हमें शिक्षा मिलती है कि जीवन में कोई भी व्यसन ऐसा नहीं है, जिसे एक बार ग्रहण किये जाने के बाद छोड़ा ना जा सके। अगर मनुष्य चाहे तो बड़ी से बड़ी बुराई का त्याग कर सकता है।
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