Moral Story In Hindi Short
Welcome Guys, ये जो कहानी आप यहाँ पढ़ने आये है इसे एक बार जरूर पढ़ियेगा। मैं दाबे से बोल सकता हूँ कि कहानी के अंत में आप यही कहेंगे कि क्या कहानी थी,मजा आ गया पढ़ने से, इसलिए बिना कोई देर किये, पढ़ना शुरू कीजिये और अंत में कमेंट करके जरूर बताना कहानी आपको कैसी लगी।
फूलों वाली राजकुमारी
बहुत पुरानी बात है। किसी गाँव में पति-पत्नी रहा करते थे। वे बहुत भले थे। गाँव भर के दुःख में दुखी और सुख में ख़ुशी से झूम उठते थे।
वे दोनों छोटे-से झोंपड़े में रहते थे। आँगन के आधे हिस्से को गोबर-मिट्टी से लीप देते और आधे में आलू, शकरकंद,मूंगफली तथा दूसरी सब्जियाँ उगाते। साल भर तक वे यूँ ही अपना गुजारा कर लिया करते।
एक दिन की बात है, बहुत सवेरे तारों की छाँह में पत्नी झोंपड़ी से बाहर निकली। उसने देखा कि एक सफ़ेद, खूबसूरत बिल्ली कचनार के पेड़ तले दुबकी बैठी है। वृद्धा ने उसे पुचकारा तो वह उसके पांवों से लिपट गई।
पौ फटने पर वृद्धा पड़ोसी झोंपड़े से दूध-चावल ले आई। वृध्द दम्पति ने कभी किसी के सामने हाथ नहीं पसारा था,पर सुन्दर बिल्ली के लिए वे किसी-न-किसी तरह दूध का जुगाड़ करने लगे।
इसी तरह समय गुजरता गया। सर्दी-गर्मी, पतझड़-वसंत आ-आकर लौटने लगे। उन तीनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, पर बिना काम-धाम के कैसे चलता ? बुढ़ापे के कारण दोनों को चलने-फिरने में भी कठिनाई होने लगी। बिल्ली भी भूखी रहने लगी। वह अपने माता-पिता के कष्ट को देख नहीं सकती थी।
Moral Story In Hindi Short
‘मैं भी जरा बाहर खुली हवा में हो आऊं। ‘-बिल्ली ने सोचा। गली के कुत्तों और दूसरे जानवरों से बचती-बचाती वह घने जंगल में जा पहुंची। उसने झरने का ताजा जल पिया और देखते ही देखते सुन्दर कन्या में बदल गई।
वह अपने माता-पिता के घर जा पहुँची। बोली-”अब मैं आपकी सेवा करुँगी।” उन दोनों को कुछ समझ में नहीं आया। अपना पेट भरना मुश्किल हो गया है। अब इस तीसरे प्राणी का क्या होगा ? वे दोनों सोच में डूब गए। बिल्ली के एकाएक गायब हो जाने से भी वे परेशान थे।
वह कन्या जहाँ-जहाँ जाती, आँगन में फूल झरने लगते। फूलों की डलिया लिए वह बाजार जाती। फूल बेचकर पैसों से खाने-पीने का सामान खरीदती और शाम को घर लौट आती। इस तरह तीन प्राणियों के परिवार की दशा धीरे-धीरे सुधरने लगी। इतने सुन्दर फूल गाँव भर में कहीं नहीं थे। मजे की बात यह कि बिना बीज-खाद-पानी के फूलों की खेती हुआ करती थी।
”बेटी, तू कौन है ? कहाँ से आई है ?” – वृध्द पति-पत्नी पूछते।
”मैं बेटी हूँ आपकी। इससे ज्यादा कुछ जानिए भी मत।”-वह जवाब देती।
खाना खाकर वह अपने झोपड़े में घुसती तो सवेरे निकलती।
सवेरे के साथ ही रंग-बिरंगे खुशबूदार फूलों का सिलसिला शुरू हो जाता। उसने माता-पिता के कह रखा था कि उसकी असलियत जानने की कोशिश न करें। पर उन्हें सब्र कहाँ ?
एक बार आधी रात को उन दोनों ने सुराख़ से झोपड़ी में झाँका। उन्होंने देखा कि लड़की के स्थान पर वही सफ़ेद बिल्ली औंधे मुँह पड़ी है। उनके देखने की देर थी कि बिल्ली एक सुन्दर राजकुमारी बन गई।
-”आपने मेरा असली रूप देख लिया है। इसलिए अब मैं अपने फूलों के देश जाउँगी। मैं आपकी सहायता करने चुपके-चुपके यहाँ आई थी।”
उसके जाने की बात सुनकर माता-पिता फुट-फूटकर रोने लगे। पर अब क्या हो सकता था।
“चिंता न करें। आपके आँगन में हमेशा रंग-बिरंगे फूल खिलते रहेंगे। आपकी सेवा का बदला नहीं चूका पाऊँगी मैं।” – इतना कहते ही वह राजकुमारी तेज हवा के झोंके पर सवार होकर अपने देश चली गई। वह गाँव ‘फूलों वाला गाँव’ के नाम से जाना जाने लगा।
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पैसों का अहंकार
शहर से दो मील की दुरी पर नदी किनारे हरे-भरे वृक्षों वाले एकलव्य आश्रम की मनमोहिनी छठा सचमुच देखते ही बनती थी। दूर-दूर तक एकांत और शांत वातावरण था।
आश्रम में केवल उन्हीं बच्चों को प्रवेश दिया जाता, जो हर द्रष्टि से योग्य होते थे। गुरु हरिप्रसाद जी आश्रम के संचालक थे, जिनका बच्चे बहुत सम्मान करते थे। वह आश्रम के परिसर में बने निवास में ही रहते और वहाँ की व्यवस्था का पूरा ध्यान रखते थे। उनकी धर्मपत्नी मधुलता एक विदुषी, पतिव्रता स्त्री थी। उनका इकलौता पुत्र सौरभ बहुत सुशील और होनहार था।
आश्रम में कुल पच्चीस विधार्थी थे, जिनमें उनका पुत्र भी शामिल था। जयंत उन सबका मॉनिटर था। वह एक निर्धन परिवार से था। उसका पिता सेठ शोभाराम की दुकान पर मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पाला करता था। सेठजी के लड़के विक्रम ने इसी आश्रम में प्रवेश ले रखा था। लेकिन उसमे एक कमी थी कि वह जयंत को सदा तिरस्कार की द्रष्टि से देखा करता था।
एक रोज विक्रम ने गुरूजी से कहा कि उसकी जेब से किसी ने चाँदी का सिक्का चुरा लिया। पूछने पर उसने बताया कि उसका शक जयंत पर है।
गुरूजी जयंत पर बहुत स्नेह रखते थे। यही नहीं, उसे वह अपना सबसे अधिक विश्वासपात्र शिष्य भी समझते थे। उसका नाम सुनकर गुरूजी को बहुत पीड़ा हुई जो उन्हें अंदर ही अंदर सालने लगी। जब इस बारे में जयंत समेत सभी बालकों से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें कुछ पता नहीं है।
गुरूजी इसके कारण बहुत परेशान रहने लगे। आज तक उनके आश्रम में ऐसी दुखद घटना पहले कभी नहीं हुई थी।
आखिर उन्हें एक तरकीब सूझी। शाम को भोजन के बाद उन्होंने सभी को बुलाकर कहा-”देखो बच्चों, विक्रम की जेब से इस तरह सिक्के की चोरी हो जाना इस आश्रम की प्रतिष्ठा पर गहरी चोट है।
Moral Story In Hindi Short
यह तो मानना ही पड़ेगा कि जिसने यह हरकत की है, वह कोई बाहर का नहीं है, बल्कि हम में से ही कोई है। खैर, जाने-अनजाने में जिससे भी यह गलती हुई है, उससे मेरा यही कहना है कि वह तुरंत अपनी गलती सुधारे और सुबह होने से पहले-पहले उस सिक्के को आश्रम की पत्र-मंजूषा में डाल दे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मुझे बहुत कष्ट होगा। इस स्थिति में सिक्के की कीमत मुझे अपनी ओर से अदा करनी होगी।”
गुरूजी के इस कथन पर एकदम सन्नाटा छा गया। सोने से पहले बालकों में काफी देर तक इसी बात की चर्चा होती रही। उनका हृदय बार-बार कचोट रहा था कि गुरूजी ने इस घटना से दुखी होकर यदि आश्रम छोड़ दिया, तो उन सबके लिए वह डूब मरने जैसे बात होगी।
गुरूजी भी देर रात तक सो नहीं पाए। दूसरी और चारपाई पर लेटे सौरभ की नजरें पिता पर लगी हुई थीं। वह भी बहुत दुखी था। कुछ देर के बाद जब सौरभ ने देखा कि पिताजी सो रहे हैं, तो वह चुपके से उठा और बिना किसी आहट के धीरे से बाहर निकल गया।
गुरूजी सचमुच सोए नहीं थे, बल्कि आँखे मींचकर लेटे है थे। बेटे का इस तरह बाहर जाना उन्हें कुछ अजीब लगा। पर उस समय वह कुछ बोले नहीं।
सुबह जब पत्र-मंजूषा खोली गई, तो उसमे वह सिक्का मिल गया। गुरूजी समझ गए कि चोरी का यह घिनौना कार्य उनके ही लाड़ले सौरभ ने किया है। सुबह दुखी होकर उन्होंने विधार्थियों से कहा कि उन्हें इस बात की खुशी है कि विक्रम का सिक्का उसे मिल गया, किन्तु ऐसी ओछी हरकत करने वाला उनसे छिपा नहीं रह सका। वह उसे अच्छी तरह जान गए हैं। फिर भी चूँकि उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली है, इसलिए आश्रम से निकालने के बजाए, वह केवल उसे तीन दिन लगातार निराहार रहने की सजा सुनाते हैं।
सभी बालक एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। विक्रम पीछे की ओर शांत खड़ा था। जयंत के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी। सौरभ का सिर नीचे की ओर झुका था।
गुरूजी कुछ देर रूककर फिर बोले-”अब आप सभी यह जानना चाहेंगे कि इस दंड का भागी कौन है ? तो सुनिए ! दोषी मेरा अपना बेटा सौरभ है।”
यह सुनते ही विक्रम जोर से चिल्लाया-”नहीं-नहीं यह पाप सौरभ से नहीं, मुझसे हुआ है।” दौड़कर वह गुरूजी के चरणों में गिर गया और गिड़गिड़ाते हुए बोला-“मुझे माफ़ कर दो गुरूजी, मुझे माफ़ कर दो। सौरभ का इसमें कोई दोष नहीं है। वह सिक्का किसी ने नहीं चुराया। इसे मैंने ही सौरभ को रखने के लिए दिया था। मैंने इसे कसम दिलाई थी कि इस बारे में वह किसी को कुछ नहीं बताएगा। इसीलिए वह इतने दिन चुप रहा।”
“तो फिर जयंत पर चोरी का झूठा इल्जाम क्यों लगाया ? इसके पीछे तेरा क्या मकसद था ?”- गुरूजी ने पूछा।
“जयंत से मन ही मन मुझे ईर्ष्या होने लगी थी, क्योंकि वह मेरी बराबरी कर रहा है। इसलिए मैं इसे अपमानित करके किसी तरह आश्रम से निकलवा देना चाहता था। सौरभ ने इस बात के लिए मुझे कोसा भी, लेकिन मैं अपने अहंकार में अकड़ा रहा। आज मुझे मालूम हुआ कि किसी की पहचान उसके पैसों से नहीं, गुणों से होती है।” कहता हुआ वह फुट-फुटकर रोने लगा।
गुरूजी को लगा, विक्रम ने अपनी भूल स्वीकार करके आश्रम को अपवित्र होने से बचा लिया है। उन्होंने उसे प्यार से गले लगा लिया।
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Finally आप कहानी के अंत तक पहुँच चुके हैं। तो आपको कहानी कैसी लगी। आप अपने मनोभाव को कमेंट के माध्यम से हमें बता सकते हो, तो बिना कोई देर किये कमेंट करके हमें बता दीजिये। Thank You !
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