Shiva bhakt/Shiva bhakt ki kahani आशा करता हूँ ये कहानी आपको पसंद आएगी |
! शिव भक्त नंदभद्र की कहानी !
प्राचीन काल की बात है, बहूदक नमक तीर्थ में नंदभद्र नाम के वैश्य रहते थे| वे वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले सदाचारी पुरुष थे| उनकी धर्मपत्नी का नाम कनका था| वह भी पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली साध्वी स्त्री थी| उसमे अन्य अनेक सदगुण भी विधमान थे, जिससे उनकी गृहस्थी बड़े आनंद एवं धर्मपूर्वक व्यतीत हो रही थी|
वर्णाश्रम – धर्म के अनुसार नंदभद्र वाणिज्यको ही अपना श्रेष्ठ धर्म मानते थे और उसे ही अपनाये हुए थे| नंदभद्र के हृदय में परोपकार तो मानो साक्षात् मूर्तिमान होकर विराजमान था| वे भगवन की पूजा की भावना से अपना समस्त व्यवसाय करते और दुसरो की आवश्यकता का ध्यान रखते हुए थोड़ा लाभ लेकर बस्तुओ की बिक्री करते थे | ग्राहको के साथ किसी प्रकार का भेद भाव न रखते हुए वस्तुओ के क्रय – विक्रय में वे पूर्णरूप से समता का वर्ताव करते थे| उनके यहाँ ग्राहकों को अच्छा माल दिखा कर कभी भी घटिया माल नहीं दिया जाता था| वे घृणित – वर्जित वस्तु मदिरा आदि का व्यापार कभी नहीं करते थे|
सौम्य – स्वभाव वाले नंदभद्र का रहन सहन भी बहुत सीधा – सादा था| वे लकड़ी एवं घास – फूस से निर्मित एक छोटे से मकान में निवास करते थे| उनका खान – पान बहुत साधारण कम खर्चीला था|
जिसे भगवान् से प्रेम हो जाता है, उसे संसार के कार्य फीके – से लगाने लगते है| यही दशा नंदभद्र की थी| वे चंद्रमैालि भगवन शंकर के अनन्य – भक्त थे| बहूदक में एक बहुत सुन्दर प्रसिद्ध शिवलिंग स्थापित था, जो कपिलेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध था | नंदभद्र तीनो समय बड़े प्रेम से कपिलेश्वर शिवलिंग की पूजा किया करते थे| वे सभी के हित – साधन में सदैब संलग्न रहते एवं मन, वाणी और क्रिया द्वारा परोपकार धर्म का पालन करते थे| किसी के साथ न उनका द्वेष था न राग| वे न किसी से अनुरोध करते थे न विरोध| वे निंदा स्तुति में सदा ही सम तथा जो कुछ मिल जाता, उसी मे संतुष्ट रहते थे|
Shiva bhakt ki kahani
नंदभद्र का जीवन सन्यासियों -जैसा ही था, वे ग्रहस्थाश्रम को सन्यासाश्रम से कम न मानते थे| वे कहा करते थे की जो विषयो को हर से त्यागकर मन के द्वारा उसे ग्रहण करता रहता है, वह इहलोक र परलोक – दोनों ओर से भ्रष्ट होकर फटे हुए वदल की भांति नष्ट हो जाता है| संन्यास का सरभुत तत्त्व है —- विषयो का त्याग, सभी को उसका पालन करना चाहिए| गृहस्थ में रहकर यथा शक्ति देवता पितर, अतिथि, व्राह्मण, पशु – पक्षी, कीट – पतंग आदि समस्त भूतो के लिए सदा अन्न देना चाहिए | इनसे बच हुआ अन्न ही स्वम् भोजन करना चाहिए|
नंदभद्र सदाचार – सम्पन्न सुखमय जीवन सभी के लिए स्पृहणीय था| सज्जन लोग सदैव संतो के जीवन से लाभ उठाते है, उन्हें देख देखकर प्रसन्न होते तथा उनका अनुसरण कर अपने जीवन को सदाचारमय बनाते है| दूसरी और दुष्टजन किसी संत को देखकर जलते है| ऐसा ही एक व्यक्ति नानभद्र के पडोस में रहता था, उनका नाम था सत्यव्रत| नाम तो उसका सत्यव्रत था, परन्तु था वह बड़ा ही नास्तिक एवं दुराचारी| धर्मपरायण नंदभद्र को सुखी देखकर वह जला करता था| बारम्बार नंदभद्र पर मिथ्या दोषरोपण करना और सदा उनके दोष ही ढूंढते रहना मानो उसका स्वभाव ही बन गया था| उसके जीवन की सबसे बड़ी चाह यही थी की किसी प्रकार कोई नंदभद्र दोष दिख जाय तो उसे धर्म से गिरा दूँ|
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प्रारब्ध के भोग से कौन छूट पाया है? देवता या मनुष्य कोई भी क्यों न हो, प्रारब्ध का विधान तो सभी को स्वीकार करना पड़ता है| अचानक नंदभद्र का इकलौता पुत्र चल बसा| महामति नंदभद्र ने विधि का विधान मानकर शोक नहीं किया| थोड़े ही दिनों के पश्चात् सहसा उनकी पतिव्रता पत्नी कनका भी चल बसी|
लम्बे अवसर की प्रतीक्षा के पश्चत नंदभद्र पर विपत्ति आयी देखकर उनके पडोसी सत्यवत को बड़ी प्रसन्नता हुई| उसने सोचा की अब मैं नंदभद्र को धर्मभ्रष्ट कर ही दूंगा| वह दौड़कर उनके पास पहुँचा और बनावटी दुःख प्रकट करते हुए बोला — ‘हा नंदभद्र! बहुत बुरा हुआ| तुम्हारे जैसे धर्मात्माको भी कैसा दुःख उठाना पड रहा है| इससे यही समझ में आता है की यह धर्म – कर्म सब ढकोसला है| मेरे मन में तो कई बार तुम्हे चेतावनी देने की बात आयी थी की दिन में तीन बार पूजा करना, स्तुति – प्रार्थना करना — सब व्यर्थ है, परन्तु संकोचवश मैं चुप रहा| आज कहे बिना नहीं रहा गया, अतः कह रहा हूँ|
उसने पुनः कहा—‘भैया नंदभद्र! धर्म के नाम पर क्यों इतना कष्ट उठाते हो? मिथ्यावाद अच्छा नहीं होता| जबसे तुम इस पत्थर – पूजन में लगे हो, तबसे तुम्हे कोई अच्छा फल मिला हो, ऐसा मैंने नहीं देखा| तुम्हारा इकलौता पुत्र और साध्वी पत्नी दोनों संसार से चल बसे | यदि भगवन होते तो क्या तुम्हे ऐसा फल देते? भैया ! भगवन तो स्वार्थी लोगो की कल्पनामात्र है| सूर्य, चन्द्रमा, वायु, मेघ आदि सब स्वभाव से ही विचरण करते है, स्वभाव से ही समस्त जीव – जंतु, पेड़ – पैधे एवं मनुष्य पैदा होते है | मनुष्ययोनि ही सबसे दुखद योनि है, अन्य सभी योनियाँ सुखद है, क्योंकि उनमे सभी स्वच्छन्द विचरण किया करते हैं| पुण्य और पाप सब कुछ कल्पना है| नंदभद्र! मैं तुमने सही सलाह देता हूँ की मिथ्या धर्म का परित्याग करके आनंदपूर्वक खाओ, पीओ और भोगो; क्योंकि यही सत्य है |’
सत्यव्रत की मूर्खतापूर्ण बातें नंदभद्र पर कोई प्रभाव न डाल सकीं| उनके विचार तो पर्वत की भाँति अचल एवं समुद्र की भांति गंभीर थे| वे तनिक भी विचलित न हुए और हँसते हुए बोले—‘सत्यव्रतजी! आप अपने – आपको ही धोखा दे रहे हैं| क्या पापियों पर दुःख नहीं आते? क्या उनके पुत्र स्त्री आदिकी मृत्यु नहीं होती? जब किसी सज्जन पुरुषपर दुःख आता है, तब सभी लोग सहानुभूति प्रकट करते है, परन्तु विपत्ति काल में दुराचारी के प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाला कोई नहीं होता| अतः धर्मपालन करनेवाला ही श्रेष्ठ है| ‘
सत्यव्रत तो अपने हाथपर था, उसे ये बातें कैसे अच्छी लगतीं| नंदभद्र ने पुनः कहा—-‘महाशय! अँधा व्यक्ति सूर्य के स्वरुप को नहीं जानता, परन्तु उसके न जानने से क्या सूर्य का अस्तित्व समाप्त हो जाता है? जिर प्रकार राजा के बिना प्रजा नहीं रह सकती, उसी प्रकार ईश्वर के बिना ससार का संचालन नहीं हो सकता, यह आप सत्य समझ लें| जिस शिवलिंग को आप पत्थर कहते हैं, स्वयं भगवान् श्रीराम ने समुद्रतटपर उसकी स्थापना की थी| ‘
सत्यव्रत का पुनः वही प्रश्न था —-देवता हैं तो दिखाई क्यों नहीं देते ?’ नंदभद्र ने कहा —-‘क्या देवतालोग आपके याचना करें की हमें आप मानिये | ‘ नंदभद्र सत्यव्रत से अधिक विवाद नहीं करना चाहते थे, अतः वे स्थान को छोड़कर चले गए |
एक बार नंदभद्र के मन में विचार आया कि भगवन सदाशिव का साक्षात् दर्शन करके उनसे पूछूँ —-प्रभु ! आप तो निर्दोष ,निर्वैर और समदर्शी हैं , फिर आपका बनाया यह संसार दोषरहित क्यों नहीं हैं ? इसमें इतने सुख – दुःख , जन्म -मरण आदि क्लेश और वैमनस्य क्यों भरे हुए हैं ?’ यह सोचकर वे शिव-मंदिर में आये | कपिलेश्वर लिंग की पूजा की , फिर प्रणाम करके भगवन चंद्रमौलि के आगमन की प्रतीक्षा में खड़े हो गए | उन्होंने मन में यह निश्चय किया की जबतक भोलेनाथ दर्शन नहीं देंगे, तबतक मैं ऐसे ही खड़ा रहूँगा | लगातार तीन दिन और तीन राततक नंदभद्र वैसे ही खड़े रहे | चौथे दिन एक सात वर्ष का बालक उस शिवमंदिर में आया | गलित कुष्ठ का रोगी होने के कारण वह पीड़ा से कराह रहा था | उसने बड़े विस्मय के साथ नन्द्रभद्र से पूछा –‘आप इतने सुन्दर एवं स्वस्थ दिखायी दे रहे हैं, फिर भी आपके चेहरे पर क्लेश के चिन्ह क्यों हैं ?’ नंदभद्र अपने मन का संकल्प उस बालक से कह सुनाया |
सब कुछ सुनकर उस बालक –‘ अप्रिय का संयोग एवं प्रियका वियोग –ये मानसिक कष्ट के कारण हैं तथा रोग एवं परिश्रम शारीरिक कष्ट के, मानसिक कष्ट से शारीरिक एवं शारीरिक कष्ट से मानसिक कष्ट होता हैं | औषध एवं उपचारों से शारीरिक कष्ट दूर होता है एवं ज्ञान से मानसिक कष्ट | मन के दुःख की जड़ राग है | इस राग से ही प्राणी सांसारिक प्राणी –पदार्थो में आसक्त होकर दुःख है | दुःख- सुख एवं आयस का मूल राग ही है | राग के वशीभूत होकर मनुष्य भोग की इच्छा करता हैं | भोग तृष्णा एवं लोभका जन्मदाता है | तृष्णा का आदि और अंत नहीं है , यह सदैव त्याज्य है | ‘
इतना सुनने पर भी नंदभद्र की जिज्ञासा का पूर्णरूप से शमन नहीं हुआ | उन्होंने पूछा– ‘बालक ! पापी मनुष्य धन-धान्य -सम्पन्न क्यों देखे जाते हैं ?’ बालक ने कहा –‘ महाभाग ! संसार में चार प्रकार के मनुष्य होते हैं ?’पहले प्रकार का मनुष्य वह है जिसके लिए इस लोक में तो सुख भोग सुलभ हैं , परन्तु परलोक में नहीं ; क्योंकि उसका पूर्वजन्म में किया हुआ पुण्य शेष है, उसे वह भोगता है और नूतन पुण्यका उपार्जन नहीं करता, उस मनबुद्धि एवं भाग्यहीन मानव को प्राप्त हुआ सुखभोग केवल इसी लोक के लिए बताया गया है |’
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‘दूसरा वह है जिसके लिए परलोक में सुख का भोग सुलभ है, परन्तु इस लोक में नहीं; क्योंकि उसका पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य नहीं है | यह जानकर वह तपस्या करके नूतन पुण्य का उपार्जन करता हैं | उस बुद्धिमान को परलोक में सदा ही सुख का भोग प्राप्त होता है |’
‘तीसरा वह है।,जिसके लिए इहलोक और परलोक में भी सुखभोग प्राप्त होता है , क्योंकि उसका पहले का किया हुआ पुण्य भी विधमान है और तपस्या से नूतन पुण्य का भी उपार्जन हो रहा है, ऐसा बुद्धिमान कोई विरला ही होता है |’
‘चौथा वह है, जिसके लिए न तो इहलोक में सुख है और न परलोक में ही ; क्योंकि उसका पहलेका पुण्य तो है नहीं और इस लोक में भी वह पुण्य की उपार्जन नहीं करता | ऐसे मनुष्य को इहलोक और परलोक– दोनों में सुख नहीं मिलता | ऐसे नराधम को धिक्कार है |”
“महात्मन ! इस प्रकार कर्म एवं भोग के रहस्य को जानकर अब आपको भगवन सदाशिव के भजन एवं वर्णधर्म के पालन में निष्कामभाव से लग जाना चाहिए | इससे आप दूसरे जन्म के बंधन में नहीं पड़ेंगे |’
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एक बालक के मुख से ऐसी रहस्यपूर्ण बातें सुनकर नंदभद्र आश्चर्यचकित हो गये | वे उससे पूछने लगे —‘बालक ! आप कौन है और यहां कैसे पधारे हैं ? आपने तो मेरे सब संदेहो को नष्ट कर दिया | ‘
बालकने बताया —-‘पूर्वजन्म मैं बड़ा दम्भी एवं पाखंडी था | मुझ में और भी बहुत – से दुर्गुण थे, जिसके फलस्वरुप मैं वर्षो से नीच योनियों में भटक रहा हूँ | भगवान् व्यासदेव कृपापूर्वक मुझे प्रत्येक योनि में सचेत कर देते हैं | उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है | अब मैं सात दिन के बाद इसी तीर्थ में प्राण त्याग दूंगा और पुण्यफल को प्राप्त करूंगा | कृपया मृत्यु के बाद आप मेरा अंतिम सस्कार कर दीजियेगा | ‘
सूर्यमन्त्र का जप करते हुए सातवें दिन उस बालक ने अपने प्राण त्याग दिये | नंदभद्र ने विधिपूर्वक उसका अंतिम सस्कार किया और शेष जीवन उन्होंने भगवन शिव एवं सूर्य की उपासना में लगा दिया तथा अंत में भगवान शंकर का सारूप्य प्राप्त किया |
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