Short Stories In Hindi With Moral
ये छोटी – छोटी कहानियाँ आपके जीवन में बहुत बड़ा बदलाव लाती है इसलिए थोड़ा सा समय निकाल कर पढ़ा जरूर कीजिये।
देवता भी नहीं कर सकते
एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों बड़े ईश्वरभक्त थे। ईश्वर उपासना के बाद वे आश्रम में आए रोगियों की चिकित्सा में गुरु की सहायता किया करते थे।
एक दिन उपासना के समय ही कोई कष्टपीड़ित रोगी आ पहुंचा। गुरु ने पूजा कर रहे शिष्यों को बुलाबा भेजा। शिष्यों ने कहवा भेजा-“अभी थोड़ी पूजा बांकी है, पूजा समाप्त होते ही आ जाएंगे।”
गुरूजी ने दोबारा फिर आदमी भेजा। इस बार शिष्य आ गए। पर उन्होंने अकस्मात बुलाए जाने पर अधैर्य व्यक्त किया। गुरु ने कहा-“मैंने तुम्हें इस व्यक्ति की सेवा के लिए बुलाया था, प्रार्थनाएँ तो देवता भी कर सकते हैं, किन्तु अकिंचनों की सहायता तो मनुष्य ही कर सकते हैं। सेवा प्रार्थना से अधिक ऊँची है, क्योंकि देवता सेवा नहीं कर सकते।
शिष्य अपने कृत्य पर बड़े लज्जित हुए और उस दिन से प्रार्थना की अपेक्षा सेवा को अधिक महत्त्व देने लगे।
Short Stories In Hindi With Moral ईमानदारी की जीत
पंडित और मुर्ख
श्रावस्ती के दो युवकों में बड़ी प्रगाढ़ मैत्री थी, दोनों ही दूसरों की जेब काटने का धन्धा करते थे। एक दिन भगवान बुद्ध का एक स्थान पर प्रवचन चल रहा था अच्छा अवसर जानकार दोनों मित्र वहीं जा पहुंचे। उनमें से एक को भगवान् बुद्ध के प्रवचन बहुत अच्छे लगे और वह ध्यानवस्थित होकर उन्हें सुनने लगा।
दूसरे ने कई जेबें इस बीच साफ कर लीं। शाम को दोनों घर लोटे। एक के पास धन था, दूसरे के पास सदविचार। गिरहकट ने व्यंग्य करते हुए कहा-“तू बड़ा मुर्ख है रे, जो दूसरों की बातों स प्रभावित हो गया। अब इस पांडित्य का ही भोजन पका और पेट भर।”
अपने पूर्व कृत-कर्मों से दुखी दूसरा गिरहकट तथागत के पास लौटा और उनसे सब हाल कहा। बुद्ध ने समझाया-“वत्स ! जो अपनी बुराइयों को मानकर उन्हें निकालने का प्रयत्न करता है वही सच्चा पंडित है, पर जो बुराई करता हुआ भी पंडित बनता है वही मुर्ख है।”
Short Stories In Hindi With Moral सच्चे और ईमानदार बालकों की कहानी
मेल की शक्ति
मातादीन के पाँच पुत्र थे – शिवराम, शिवदास, शिवलाल,शिवसहाय,और शिवपूजन। ये पांचों लड़के परस्पर झगड़ा किया करते थे। छोटी – सी बात पर भी आपस में ‘तू -तू ‘, ‘मैं -मैं ‘ करने लगते और गुत्थमगुत्थी कर लेते थे।
मातादीन अपने लड़कों के झगड़े से बहुत ऊब गया था। उसने एक दिन उन्हें समझाने के विचार से पास बुलाया।पहले से पतली – पतली सुखी पाँच टहनियों का उसने एक छोटा गट्ठर बना लिया था। पुत्रों से उसने कहा – ‘तुममें से जो इन टहनियों के गट्ठर को तोड़ देगा,उसे एक रूपया पुरस्कार मिलेगा। ‘
पाँचो लड़के झगड़ने लगे कि गट्ठर को वे पहले तोड़ेंगे। उन्हें डर था कि यदि दूसरा भाई पहले तोड़ देगा तो रूपया उसी को मिल जायगा। मातादीन ने कहा – ‘पहले छोटे – भाई शिवपूजन को तोड़ने दो। ‘
शिवपूजन गट्ठर उठा लिया और जोर लगाने लगा। दाँत दबाकर, आँख मीचकर बहुत जोर उसने लगाया। सिरपर पसीना आ गया; किन्तु गट्ठर की टहनियाँ नहीं टूटीं। उसने गट्ठर शिवसहाय को दे दिया। उसने भी जोर लगाया, पर तोड़ नहीं सका। इस प्रकार सब लड़कों ने बारी – बारी से गट्ठर लिया और जोर लगाया; किन्तु कोई उसे तोड़ने में सफल नहीं हुआ।
मातादीन ने गट्ठर खोलकर एक – एक टहनी सब लड़कों को दे दी। इस बार सभी ने टहनियों को पटापट तोड़ दिया। अब मातादीन बोला —‘देखा! ये टहनियाँ जबतक एक साथ थीं तुम में से कोई उन्हें तोड़ नहीं सका और जब ये अलग -अलग हो गयीं तो तुमने सरलता से सबको तोड़ डाला। इसी प्रकार यदि तुमलोग आपस में झगड़ते और अलग रहोगे तो दूसरे लोग तुम लोगों को तंग करेंगे और दबा लेंगे। लेकिन यदि तुमलोग परस्पर मेल से रहोगे तो कोई तुम से शत्रुता करने का साहस ही नहीं करेगा। ‘
मातादीन के लड़कों ने उसी दिन से आपस में झगड़ना छोड़ दिया। और वे मेल से रहने लगे।
मनुष्य की अपूर्णता
ब्रह्माजी की इच्छा हुई “सृष्टि रचें।” उसे क्रियान्वित किया। पहले एक कुत्ता बनाया और उससे उसकी जीवनचर्या की उपलब्धि जानने के लिए पूछा-“संसार में रहने के लिए तुझे कुछ अभाव तो नहीं ?”
कुत्ते ने कहा-“भगवन !
मुझे तो सब अभाव ही अभाव दिखाई देते हैं, न वस्त्र, न आहार, न घर और न इनके उत्पादन की क्षमता।” ब्रह्माजी बहुत पछताए। फिर फिर रचना शुरू की-एक बैल बनाया। जब अपना जीवनक्रम पूर्ण करके वह ब्रह्मलोक पहुँचा तो ब्रह्मा जी ने उससे भी यही प्रश्न किया।
बैल दुखी होकर बोला-“भगवन !
आपने भी मुझे क्या बनाया, खाने के लिए सूखी घास, हाथ-पाँवों में कोई अंतर नहीं, सींग और लगा दिए। यह भोंडा शरीर लेकर कहाँ जाऊँ।” तब ब्रह्माजी ने एक सर्वांग सुन्दर शरीरधारी मनुष्य पैदा किया। उससे भी ब्रह्माजी ने पूछा-“वत्स, तुझे अपने आप में कोई अपूर्णता तो नहीं दिखाई देती ?”
थोड़ा ठिठक कर नवनिर्मित मनुष्य ने अनुभव के आधार पर कहा-“भगवन !
मेरे जीवन में कोई ऐसी चीज नहीं बनाई जिसे मैं प्रगति सा समृद्धि कहकर संतोष कर सकता।”
ब्रह्माजी गंभीर होकर बोले-“वत्स ! तुझे दृदय दिया, आत्मा दी, अपार क्षमता वाला उत्कृष्ट शरीर दिया। अब भी तू अपूर्ण है तो तुझे कोई पूर्ण नहीं कर सकता।
धर्मपत्नी का सहयोग
महाविद्वान कैयट एक ग्रन्थ लिख रहे थे। उस महत्त्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के लिए समय बहुत कम था अतएव उन्होंने आजीविका का भी ध्यान भुला दिया और उसे लिखने में तल्लीन हो गए।
कैयट की धर्मपत्नी, जब तक वह ग्रन्थ पूर्ण न हो गया स्वयं छोटी-मोटी मेहनत-मजूरी करके परिवार को रुखा-सूखा खिलाने का साधन जुटाती रही। पर उसने पति के महत्त्वपूर्ण कार्य में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न होने दी।
Short Stories In Hindi With Moral आचार्य चाणक्य के अनमोल विचार
अनासक्त कर्म ही सच्चा योग
अश्वघोष को वैराग्य हो गया। भोग-विलास से अरुचि और संसार से विरक्ति हो जाने के कारण उसने गृह-परित्याग कर दिया। ईश्वर-दर्शन की अभिलाषा से वह जहाँ-तहाँ भटका, पर शांति न मिली। कई दिन से अन्न के दर्शन न होने से क्षुधार्त और थके हुए अश्वघोष एक खलिहान के पास पहुंचे। एक किसान शांति व प्रसन्न मुद्रा में अपने काम में लगा था। उसे देखकर अश्वघोष ने पूछा-“मित्र ! आपकी प्रसन्नता का रहस्य क्या है ?”
‘ईश्वर-दर्शन’ उसने संक्षिप्त उत्तर दिया। मुझे भी उस परमात्मा के दर्शन कराइए ? विनीत भाव से अश्वघोष ने याचना की।
अच्छा कहकर किसान ने थोड़े चावल निकाले। उन्हें पकाया, दो भाग किए, एक स्वयं अपने लिए, दूसरा अश्वघोष के लिए। दोनों ने चावल खाए, खाकर किसान अपने काम में लग गया। कई दिन का थका होने के कारण अश्वघोष सो गया। प्रचंड भूख में भोजन और कई दिन के श्रम के कारण गहरी नींद आ गई। और जब वह सोकर उठा तो उस दिन जैसी शांति, हल्का-फुल्का, उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। किसान जा चुका था और जब अश्वघोष का क्षणिक वैराग्य भी मिट गया था। उसने अनुभव किया कि अनाशक्त कर्म ही ईश्वर-दर्शन का सच्चा मार्ग है।
Short Stories In Hindi With Moral सफलता की सुपर टिप्स
आत्माभिमुख बनो
माहिष्मती के प्रतापी सम्राट नृपेंद्र का यश पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति सर्वत्र फ़ैल रहा था। राजकोष, सेना, स्वर्ण, सौंदर्य, शक्ति किसी वस्तु का कोई अभाव न था। महाराज नृपेंद्र प्रजावत्सल और न्यायकारी थे। संपूर्ण प्रजा भी उन्हें बहुत श्रद्धा की दृष्टि से देखती थी।
समय बीता। शक्तियाँ घटीं। शरीर टुटा। वृद्धावस्था बढ़ने लगी और उसके साथ ही नृपति के अंतर ने उद्वेग और क्षोभ छाने लगा। उन्होंने बोलना-चालना बंद कर दिया। किसी से मिलते भी नहीं थे। उदास, बेचैन राजा न जाने किस चिंता में डुबे रहते।
एक दिन बड़े सवेरे सम्राट राज उद्यान की और निकल गए। एक स्फटिक शिला पर पूर्वाभिमुख अवस्थित नृप अब भी कोई वस्तु खोज रहे थे। धीरे-धीरे प्रातः रवि उदित हुआ। राजसरोवर में उनकी बालकिरणें पड़ीं और सहस्त्र दल कमल खिलने लगा। धीरे-धीरे कमल पूर्ण रूप से खिल गया और अपना सौरभ सर्वत्र बिखेरने लगा।
आत्मा से आवाज फूटी-क्या तुम अब भी रहस्य नहीं जान पाए कि सूर्य का प्रकाश कहाँ से आता है ?
प्रकाश उसका अंतर स्फुरण नहीं है क्या ?
कमल का सौरभ उसके भीतर से ही फूटता है। यह जो सर्वत्र जीवन दिखाई देता है वह सब विश्व-आत्मा के भीतर से ही फूटता है। आनंद का स्रोत तुम्हारे भीतर है उसे तुम्हें ही जगाना पड़ेगा। उसके लिए आत्मोन्मुख बनना पड़ेगा और साधना करनी पड़ेगी।
Short Stories In Hindi With Moral संदीप माहेश्वरी के विचार
पंचाग्नि विद्या
वाजिश्रवा ने अपने पुत्र नचिकेता के लिए यज्ञ-फल की कामना से विश्वजित यज्ञ आयोजित किया। इस यज्ञ में वाजिश्रवा ने अपना सारा धन दे डाला। दक्षिणा देने के लिए जब वाजिश्रवा ने गौएँ मंगाई तो नचिकेता ने देखा वे सब वृद्ध और दूध न देने वाली थीं, तो उसने निरहंकार भाव से कहा-“पिताजी निरर्थक दान देने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती।” इस पर वाजिश्रवा क्रुद्ध हो गए और उन्होंने अपने पुत्र नचिकेता को ही यमाचार्य को दान कर दिया।
यम ने कहा-‘वत्स ! मैं तम्हें सौन्दर्य, यौवन, अक्षय धन और अनेक भोग प्रदान करता हूँ।” किन्तु नचिकेता ने कहा-“जो सुख क्षणिक और शरीर को जीर्ण करने वाले हों उन्हें लेकर क्या करूंगा, मुझे आत्मा के दर्शन कराइए। जब तक स्वयं को न जान लूँ वैभव-विलास व्यर्थ है।”
साधना के लिए आवश्यक प्रबल जिज्ञासा, सत्यनिष्ठा और तपश्चर्या का भाव देखकर यम ने नचिकेता को पंचाग्नि विद्या (कुंडलिनी जागरण) सिखाई, जिससे नचिकेता ने अमरत्व की शक्ति पाई।
Short Stories In Hindi/Short stories Hindi बोलती टोपी की कहानी
वैद्यजी भगाये गये
देवीसहाय का लड़का भगवती प्रसाद बीमार हो गया था। वह गर्मी की दोपहरी में घर से चुपचाप आम चुनने भाग गया और वहाँ उसे लू लग गयी। उसे जोर से ज्वर चढ़ा था। देवीसहाय ने वैद्य जी को अपने लड़के की चिकित्सा के लिए बुलाया।
वैद्य जी ने आकर लड़के की नाड़ी देखी और कहा – ‘इसे लू लगी है। यह बड़ा चंचल जान पड़ता है। दोपहरी में घर से बहार जाने का क्या काम था।? यह बहुत बुरी बात है। जो लड़के अपने बड़ों की बात नहीं मानते, वे ऐसे ही दुःख भोगते हैं।’
वैद्य जी उपदेश देते जाते थे और लड़के को डाँटते जाते थे। देवीसहाय को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने कहा – ‘वैद्य जी ! मैंने आपको बुलाकर भूल की। आप अपनी फीस लीजिये और जाइये। मैं अपने लड़के की चिकित्सा किसी अन्य वैद्य से करा लूँगा। आप तो बीमार लड़के को डाँटकर और दुःखी कर रहे हैं। ‘
वैद्य जी बेचारे लज्जित होकर चले गए। जो दुःख में पड़ा है, उसे उस समय उसकी भूलें बताकर और उपदेश देकर अधिक दुःखी नहीं करना चाहिये। उस समय तो उससे सहानुभूति दिखाना और उसकी सेवा करना ही उचित है।
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दो टट्टू
एक व्यापारी के पास दो टट्टू थे। वह उनपर सामान लादकर पहाड़ों पर बसे गाँव में ले जाकर बेचा करता था। एक बार उनमें से एक टट्टू कुछ बीमार हो गया। व्यापारी को पता नहीं था कि उसका एक टट्टू बीमार है। उसे गाँव में बेचने के लिए नमक,गुड़,दाल,चावल आदि ले जाना था। उसने दोनों टट्टुओं पर बराबर – बराबर सामान लाद लिया और चल पड़ा।
ऊँचे – नीचे पहाड़ी रास्ते पर चलने में बीमार टट्टू को बहुत कष्ट होने लगा। उसने दूसरे टट्टू से कहा – ‘आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है। मैं अपनी पीठपर रखा एक बोरा गिरा देता हूँ, तुम यहीं खड़े रहो। हमारा स्वामी वह बोरा तुम्हारे ऊपर रख देगा। मेरा भार कुछ कम हो जायगा तो मैं तुम्हारे साथ चला चलूँगा। तुम आगे चले जाओगे तो गिरा बोरा फिर मेरी पीठपर रखा जायगा।’
दूसरा टट्टू बोला – ‘मैं तुम्हारा भार ढोने के लिये क्यों खड़ा रहूँ? मेरी पीठपर क्या काम भार लदा है ? मैं अपने हिस्से का भार धोऊंगा।
बीमार टट्टू चुप हो गया। लेकिन उसकी तबीयत अधिक ख़राब हो रही थी। चलते समय एक पत्थर के टुकड़े से ठोकर खाकर वह गिर पड़ा और गड्ढे में लुढ़कता चला गया, और वह मर गया।
व्यापारी अपने एक टट्टू के मर जाने से बहुत दुःखी हुआ। वह थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा। फिर उसने उस टट्टू के बचे हुए बोरे भी दूसरे टट्टू की पीठ पर लाद दिये। अब तो वह टट्टू पछताने लगा और मन-ही-मन कहने लगा -‘ यदि मैं अपने साथी का कहना मानकर उसका एक बोरा ले लेता तो यह सब भार मुझे क्यों ढोना पड़ता। ‘
संकट में पड़े अपने साथी की जो सहायता नहीं करते उन्हें पीछे पछताना ही पड़ता है।
बालचर की सच्चाई
एक बार एक स्कूल के विद्यार्थी परीक्षा देने बैठे थे। गणित का प्रश्न पत्र बहुत कठिन था। लकड़ों को उसका उत्तर नहीं आता था। अंत में किसी लड़के ने परीक्षा-भवन से प्रश्न पत्र को किसी प्रकार बाहर भेज दिया और उसके मित्र ने सब प्रश्न हल करके उसके पास भेज दिए। उस कमरे में जितने लड़के बैठे थे, सबने बाहर से प्राप्त हुए हलकों अपनी कॉपी में उतार दिया। उन लड़कों में एक ऐसा लड़का भी था जो ‘बालचर’ था। उसे पहले तो बहुत संकोच हुआ; किन्तु परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लोभ को वह दबा नहीं सका। उसने भी दूसरों की देखा-देखी उस हलकी नक़ल अपनी कॉपी में कर दी और परीक्षा का समय पूरा होनेपर घर चला आया।
नियमानुसार बालचर रात में सोते समय अपने प्रत्येक नियमों को पढ़ता है। रात में जब उस बालचर ने सोने से पहले नियम पढ़ें, तब पहले ही नियम को पढ़कर वह व्याकुल हो गया। नियम के अनुसार उसे सदा सत्य का पालन करना था और आज वह असत्य आचरण कर आया था। अपने कर्मपर उसे बहुत अधिक पश्चाताप हुआ। उसी समय उठकर उसने कपड़े पहने और पाठशाला के मुख्याध्यापक (हेडमास्टर) के घर जाकर वह उनका दरवाजा खटखटाने लगा। मुख्याध्यापक ने रात में उसके आने का कारण पूछा। उसने सब बातें सच-सच कह दीं और कहा–‘मुझसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है। आप मुझे जो दण्ड उचित समझें, दें।’
मुख्याध्यापक बोले–‘तुम्हें अपने-आप पर्याप्त दण्ड मिल चुका है। गणित के प्रश्न पत्र में फिर से तुम्हारी परीक्षा ले ली जायेगी।’
उस बालक की गणित में फिर परीक्षा ली गयी और वह अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ। दूसरे नक़ल करने वाले विद्यार्थियों को दण्ड मिला।
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