ये इतिहास की प्राचीन कहानी है। एक कहानी महाराणा प्रताप की है और दूसरी महात्मा बुद्ध की तो चलिये शुरू कीजिये Short Story in Hindi………
कर्तव्य की कसौटी
स्वतंत्रता संग्राम में जूझते हुए राणा प्रताप वन पर्वतों में अपने छोटे परिवार सहित मारे-मारे फिर रहे थे। एक दिन ऐसा अवसर आया कि खाने के लिए कुछ भी नहीं था। अनाज को पीसकर उनकी धर्मपत्नी ने जो रोटी बनाई थी उसे भी वनविलाव उठा ले गया। छोटी बच्ची भूख से व्याकुल होकर रोने लगी।
राणा प्रताप का साहस टूटने लगा। वे इस प्रकार बच्चों को भूख से तड़पकर मरते देखकर विचलित होने लगे। एक बार मन में आया शत्रु से संधि कर ली जाए और आराम की जिंदगी जिया जाए। उनकी मुख मुद्रा गंभीर विचारधारा में डूबी हुए दिखाई दे रही थी।
रानी को अपने पतिदेव की चिंता समझने में देर न लगी। उसने प्रोत्साहन भरे शब्दों में कहा-“नाथ कर्त्तव्य पालन मानव जीवन की सर्वोपरि संपदा है, इसे किसी भी मूल्य पर गँवाया नहीं जा सकता, सारे परिवार के भूखों या किसी भी प्रकार मरने के मूल्य पर भी नहीं। सच्चे मनुष्य न कष्टों से डरते हैं न आघातों से, उन्हें तो कर्त्तव्य का ही ध्यान रहता है। आप दूसरी बात क्यों सोचने लगे ?”
प्रताप का उतरा हुआ चेहरा फिर चमकने लगा। उसने कहा-“प्रिये, तुम ठीक ही कहती हो। सुविधा का जीवन तुच्छ जीव भी बिता सकते हैं पर कर्त्तव्य की कसौटी पर तो मनुष्य ही कसे जाते हैं। परीक्षा की इस घड़ी में हमें खोटा नहीं खरा ही सिद्ध होना चाहिए।”
राणा वन में से दूसरा आहार ढूँढ़कर लाए और उन्होंने दुने उत्साह से स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने की गतिविधियाँ आरम्भ कर दी
धर्म का सौदा
तथागत एक बार काशी में एक किसान के घर भिक्षा माँगने चले गए। भिक्षा पात्र आगे बढ़ाया। किसान ने एक बार उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा। शरीर पूर्णांग था। वह किसान कर्म पूजक था। गहरी आँखों से देखता हुआ बोला-“मैं तो किसान हूँ। अपना परिश्रम करके अपना पेट भरता हूँ। साथ में और भी कई व्यक्तियों का। तुम क्यों बिना परिश्रम किए भोजन प्राप्त करना चाहते हो ?”
बुद्ध ने अत्यंत ही शांत स्वर में उत्तर दिया-“मैं भी तो किसान हूँ। मैं भी खेती करता हूँ।” किसान ने आश्चर्य से भरकर प्रश्न किया-“फिर……..अब क्यों भिक्षा माँग रहे हैं ?”
भगवान बुद्ध ने किसान की शंका का समाधान करते हुए कहा-“हाँ वत्स ! पर वह खेती आत्मा की है। मैं ज्ञान के हल से श्रद्धा के बीज बोता हूँ। तपस्या के जल से सींचता हूँ। विनय मेरे हल की हरिस, विचारशीलता फल और मन नरैली है। सतत अभ्यास का यान, मुझे उस गंतव्य की ओर ले जा रहा है जहाँ न दुःख है न संताप, मेरी इस खेती से अमरता की फसल लहलहाती है। तब यदि तुम मुझे अपनी खेती का कुछ भाग दो………और मैं तुम्हें अपनी खेती का कुछ भाग दूँ तो क्या यह सौदा अच्छा न रहेगा।”
किसान की समझ में बात आ गई और वह तथागत के चरणों में अवनत हो गया।
Short Story in Hindi प्राचीन कहानियाँ