Alankar In Hindi/अलंकार
काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वों को अलंकार कहते हैं।
अलंकार का अर्थ – इसका अर्थ विभूषित करना है अर्थात जिन शब्द, अर्थ आदि गुणों से काव्य की शोभा बढ़ जाती है, उन्हें अलंकार कहते हैं।
आचार्य दण्डी के अनुसार – ‘काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं।’
अलंकार काव्य व साहित्य की शोभा बढ़ाते हैं। महाकवि “केशव” ने अलंकार के महत्त्व को इस प्रकार कहा है —
“भूषण बिन न विराजहीं कविता, बनिता मित्त।”
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अलंकार के भेद
अलंकार दो प्रकार के होते हैं —
- – शब्दालंकार
- – अर्थालंकार
( 1.) – शब्दालंकार
जहाँ पर काव्य या साहित्य में शब्दों के द्वारा चमत्कार उत्पन्न होता है, उसे शब्दालंकार कहते हैं।
जैसे — “तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये” में ‘त’ वर्ण (अक्षर) कई बार आया है। अतः यहाँ शब्दालंकार है।
शब्दालंकार के भेद
शब्दालंकार तीन प्रकार के होते हैं।
- अनुप्रास अलंकार
- यमक अलंकार
- श्लेष अलंकार
1. अनुप्रास अलंकार – जहाँ पर एक ही वर्ण या अक्षर एक से अधिक बार आये, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
जैसे – “दमकें दतियाँ दुति दामिनी ज्यों। किलकें कल बाल विनोद करें।। “
नोट – इस उदाहरण में ‘द’ , ‘क’ , ‘त’ वर्ण (अक्षर) एक से अधिक बार आये हैं। अतः अनुप्रास अलंकार होगा।
अनुप्रास अलंकार के भेद
- छेकानुप्रास – जब एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति एक बार होती है, वहां छेकानुप्रास होता है।
उदाहरण – “कहत कत परदेशी की बात।” - वृत्यनुप्रास – जहाँ एक वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हो वहां वृत्यनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण – “रघुपति राघव राजा राम।”
- श्रुत्यनुप्रास – जब कण्ठ, तालु, दन्त आदि से अच्चरित होने वाले वर्णों की आवृत्ति होती हैं वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण – “तुलसीदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।”
- लाटानुप्रास – जब शब्द और अर्थ वही रहे, केवल विश्लेषण करने से अर्थ में भेद हो जाये वहां लाटानुप्रास होता है।
उदाहरण – “पूत सपूत तो क्यों धन सांचे। पूत कपूत तो क्यों धन सांचे। ।”
- अन्त्यानुप्रास – जहाँ छन्द, चरण या पद के अंत में स्वर या व्यंजन की समानता होती है, वहां अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण – “गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिय द्रग दोष विमंजन। ।”
2. यमक अलंकार – जहाँ एक शब्द एक से अधिक बार आए और प्रत्येक का अर्थ अलग-अलग हो, वहाँ यमक अलंकार होता है।
जैसे — “कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय। ।”
नोट – इसमें ‘कनक’ शब्द दो बार आया है। प्रथम ‘कनक’ का अर्थ है ‘धतूरा’ और दूसरे ‘कनक’ का अर्थ है ‘सोना’ । इसलिए यहाँ पर ‘यमक’ अलंकार है।
3. श्लेष अलंकार – जहाँ पर कोई शब्द एक ही बार आए किन्तु अर्थ एक से अधिक हों, वहां श्लेष अलंकार होता है।
जैसे — “चरन धरन चिन्ता करत, चितवन चारहुँ ओर। सुवरन को खोजत फिरें, कवि व्यभिचारी चोर।”
नोट – इस उदहारण में ‘सुवरन’ शब्द के तीन अर्थ हैं। पहले ‘सुवरन’ शब्द का अर्थ ‘कवि’ के लिए ‘सुन्दर अक्षर’ होता है।, दूसरे ‘सुवरन’ शब्द का अर्थ ‘व्यभिचारी’ के लिए ‘सुन्दर स्त्री’ है और तीसरे ‘सुवरन’ शब्द का अर्थ ‘चोर’ के लिए ‘सोना’ है। इसलिए यहाँ पर श्लेष अलंकार है।
( 2.) – अर्थालंकार
काव्य साहित्य में जहाँ पर अर्थ के द्वारा रोचकता उत्पन्न हो जाती है, वहाँ पर अर्थालंकार होता है।
जैसे — “सुन्दर वदन कलाधर जैसे” में अर्थ सौन्दर्य है। यहाँ पर वदन को कलाधर ( चद्रमा के समान सुन्दर) बताया गया है।
अर्थालंकार के भेद
अर्थालंकार सात प्रकार के होते हैं।
- उपमा
- रूपक
- उत्प्रेक्षा
- अतिशयोक्ति
- अन्योक्ति
- सन्देह
- भ्रान्तिमान।
1. उपमा अलंकार – जहाँ दो वस्तुओं में समानता का वर्णन किया जाता है, वहां उपमा अलंकार होता है।
जैसे — “अरविन्द सो आनन रूप मरन्द, अनन्दित लोचन भृंग पिये”।
नोट – कवि ने इन पंक्तियों में मुख को कमल के समान सुन्दर बतलाया है। अतः यहाँ उपमा अलंकार है।
उपमा अलंकार के अंग :-
- उपमेय – वह वस्तु जिसकी समानता की जाये उपमेय कहलाती है; जैसी ऊपर के उदाहरण में “आनन” ।
- उपमान – जिस वस्तु से समानता की जाये उसे उपमान कहते हैं; जैसे ऊपर के उदाहरण में “अरविन्द” ।
- साधारण धर्म – जिस गुण की समानता प्रकट की जाये, उसे साधारण धर्म कहते हैं; जैसे ऊपर के उदाहरण में “सुन्दर” छिपा है।
- वाचक शब्द – जिन शब्दों के द्वारा समानता प्रकट की जाये वे वाचक शब्द होते हैं; जैसे ऊपर के उदाहरण में “सो” । अन्य वाचक शब्द हैं इव, सा, समान, सम आदि।
( उपमा के अंग सरल शब्दों में )
जैसे – हरिपद कोमल कमल से
- उपमेय- जिसकी उपमा दी जाये
- उपमान- जिससे उपमा दी जाये।
- साधारण धर्म- उपमेय और उपमान दोनों से समानता रखने वाला धर्म।
- वाचक शब्द- जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता सूचित हो उसे वाचक शब्द कहते हैं।
- उपमेय -पद
- उपमान – कमल
- साधारण धर्म – कोमल
- वाचक शब्द -से
Alankar in Hindi अलंकार 6th, 7th, 8th, 9th, 10th, 11th, 12th सभी class के लिए।
- पूर्णोपमा > पूर्णोपमा अलंकार में उपमा के चारों अंग उपमान, उपमेय, साधारण धर्म और वाचक शब्द स्पष्ट रूस से निर्दिष्ट होते हैं।
उदाहरण – पीपर पात सरिस मन डोला।
स्पष्टीकरण – पीपर पात -उपमान, मन-उपमेय, डोला-साधारण धर्म, सम-वाचक शब्द। - लुप्तोपमा >उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द में से किसी एक या अनेक अंगों के लुप्त होने पर लुप्तोपमा अलंकार होता है। (लुप्तोपमा में उपमा के तीनों अंगों तक के लोप होने की कल्पना की गई है।)
उदाहरण – नील सरोरुह स्याम तरुन। अरुन बारिज नयन। ।
स्पष्टीकरण – नयन-उपमेय, सरोरुह और बारिज – उपमान तथा नील और अरुन-साधारण धर्म है।
- रसनोपमा > जिस प्रकार एक कड़ी दूसरी कड़ी से क्रमशः जुड़ी रहती है उसी प्रकार “रसनोपमा” में उपमेय-उपमान एक दूसरे से जुड़े रहते हैं।
उदाहरण – सगुन ज्ञान सम उद्यम-उद्यम सम फल जान। फल समान पुनि दान है,दान सरिस सनमान। ।
स्पष्टीकरण – उद्यम फल दान और सनमान उपमेय अपने उपमानों के साथ श्रृंखला बद्ध रूप से प्रस्तुत किए गए हैं।
- मालोपमा >एक ही उपमेय के लिए जब अनेक उपमानों का गुम्फन किया जाता है, वहां मालोपमा अलंकार होता है।
उदाहरण – पछतावे की परछांही-सी तुम उदास छाई हो। कौन दुर्बलता की अंगड़ाई-सी अपराधी-सी भय से मौन।।
स्पष्टीकरण – उदाहरण में एक उपमेय के लिए अनेक उपमान प्रस्तुत किए गए है। अतः मालोपमा अलंकार है।
2. रूपक अलंकार – जहाँ उपमेय (प्रस्तुत) का उपमान (अप्रस्तुत) का अभेद रूप से आरोप किया गया हो, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
जैसे — “चरण कमल बन्दों हरि राई ।”
नोट – यहाँ पर चरण को कमल की समानता अभेद रूप से (पूर्ण रूप से) दे दी गई है अर्थात चरणों को कमल का रूप दे दिया गया है। अतः यहाँ रूपक अलंकार है।
- सांगरूपक >जहाँ उपमेय पर उपमान का (सर्वांग) आरोप हो वहाँ सांगरूपक होता है।
उदाहरण – उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग। बिगसे सन्त सरोज सब हरखे लोचन भृंग। ।
स्पष्टीकरण – वहाँ रघुवर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेय तथा बाल, सूर्य, उदयगिरि, सरोज तथा भृंग उपमानों का आरोप किया गया है।
- निरंगरूपक >जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप (सर्वांग) न हो वहाँ निरंग रूपक होता है।
उदाहरण – अवसि चलिय वन राम पहुं भरत मंत्र कीन्ह। सोक सिन्धु बूड़त सवहिं,तुम अवलम्बन दीन्ह। ।
स्पष्टीकरण – यहाँ सिन्धु उपमान का शोक उपमेय में आरोप मात्र है।
- परम्परित रूपक >इसमें एक आरोप दूसरे आरोप का कारण होता है।
उदाहरण – बाड़व ज्वाला सोती थी, इस प्रणय-सिन्धु के तल में। प्यासी मछली-सी आँखे थी,विकल रूप के जल में। ।
स्पष्टीकरण – यहाँ आँखों में मछली का आरोप, रूप में जल के कारण किया गया है।
3. उत्प्रेक्षा अलंकार – जहाँ पर उपमेय में उपमान की सम्भावना अथवा कल्पना की जाए, वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यह अलंकार मनु, मानो, जगु, जानो इत्यादि वाचक शब्दों से प्रकट किया जाता है।
जैसे — “मनहुँ सूर वाढि डारि है, वारि मध्य तें मीन ।”
नोट – ब्रज की गायों के दुःख की कल्पना, पानी से बाहर पड़ी हुई मछली से की गई है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- वस्तूत्प्रेक्षा >वस्तुत्प्रेक्षा में एक वस्तु की दूसरी वस्तु के रूप में सम्भावना की जाती है।
उदाहरण – कहती हुई यों उत्तरा के, नेत्र जल से भर गये। हिम के कणों से पूर्ण मानो, हो गये पंकज नये।।
स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में आँसुओं से भरी उत्तरा की आँखों में (एक वस्तु, उपमेय) कमल पर जमा हिमकणों (अन्य वस्तु, उपमान) की संभावना को प्रकट किया जा रहा है। अतः यहाँ वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।
- हेतूत्प्रेक्षा >जहाँ अहेतु में हेतु मानकर सम्भावना की जाती है वहां हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उदाहरण – मनहुँ विधि तन अच्छ छवि, स्वच्छ राखिबे काज। द्रग-पग पांछन कौ करे,भूषन पायंदाज। ।
स्पष्टीकरण – हेतु “आभूषण” न होने पर भी उसकी पायदान के रूप में उत्प्रेक्षा की गई है।
- फलोत्प्रेक्षा >जहाँ अफल में फल की सम्भावना का वर्णन हो, वहां फलोत्प्रेक्षा होता है।
उदाहरण – पुहुप सुगन्ध करहिं एही आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा। ।
4. अतिशयोक्ति अलंकार – जहाँ किसी वस्तु, घटना अथवा परिस्थिति का वास्तविकता से अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया हो वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
जैसे — “अब जीवन की है कपि आस न कोय। कनगुरिया की भदुरी कँगना होय।।”
नोट – यहाँ शरीर की क्षीणता को व्यंजित करने के लिए अँगूठा को कंगन होना बताया गया है।
5. अन्योक्ति अलंकार – जहाँ प्रस्तुत के द्वारा अप्रस्तुत का वर्णन किया जाता है। अतः किसी की बात को दूसरे पर ढालकर कहा जाता है, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
जैसे — “माली आवत देखकर, कलियन करी पुकार। फूले-फूले चुन लिये, कालि हमारी बार।।”
नोट – इस उदाहरण में माली कहकर मृत्यु की ओर संकेत करके, मनुष्य की ओर संकेत किया गया है। इसलिए अन्योक्ति अलंकार है।
6. सन्देह अलंकार – जहाँ एक वस्तु के सम्बन्ध में अनेक वस्तुओं का सन्देह हो और समानता के कारण अनिश्चितता की मनो दशा बनी रहे, वहाँ सन्देह अलंकार होता है।
जैसे — “सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है। सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है। ।”
नोट – इस उदाहरण में साड़ी और स्त्री का कोई निश्चय नहीं हो पा रहा है। इसलिए सन्देह अलंकार है।
7. भ्रान्तिमान अलंकार – जब समानता के कारण एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भ्रम हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है।
जैसे — “देख उसको ही हुआ शुक मौन हैं। सोचता है अन्य शुक यह कौन है। । नाक का मोती अधर की कान्ति से। बीज दाड़िम का समझकर भ्रान्ति से। ।”
नोट – तोता उर्मिला की नाक के मोती को भ्रमवश अनार का दाना और उसकी नाक को दूसरा तोता समझकर भ्रमित हो जाता है।
• प्रतीत अलंकार – जहाँ उपमान का अपकर्ष वर्णित हो वहाँ प्रतीत अलंकार होता है।
जैसे — “उतरि नहाये जमुन जल, जो सरीर सम स्याम।”
नोट – राम उस जमुना-जल में नहाये जो उनके शरीर के समान सांवले रंग का है।
• अनन्वय अलंकार – जहाँ उपमान के अभाव के कारण उपमेय ही उपमान का स्थान ले लेता है वहाँ अनन्वय अलंकार होता है।
जैसे — “राम से राम सिया से सिया। सिर मौर बिरंचि विचारि सँवारे। ।”
नोट – राम और सीता ही उपमान है तथा राम और सीता ही उपमेय हैं।
• दृष्टान्त अलंकार – जहाँ पमेय व उपमान के साधारण धर्म में भिन्नता होते हुए भी विम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से कथन किया जाय वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है।
जैसे — “बूँद समानी समद में, सो कत हेरी जाई।”
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