Story of Swami Vivekananda in Hindi
स्वामी विवेकानंद की कहानी
शरीर एक अनमोल रत्न
एक समय भ्रमण करते हुए स्वामीजी एक उद्यान में पहुँचे। वहां एक फकीर रहता था, जिसके दोनों बाजू नहीं थे। उद्यान में मच्छर बहुत होते थे। स्वामीजी ने पूछा,”भाई, पैसे तो माँग लेते हो। लोग तुम्हारे इस प्याले में फेंक देते हैं, परन्तु रोटी कैसे खाते हो ?”
वह बोला,”जब पैसे इकट्ठे हो जाते हैं, शाम हो जाती है, तो वह जो सामने नानबाई की दुकान है न, उसको आवाज देता हूँ,’ओ जुम्मा ! आ जा, पैसे जमा हो गए हैं। इन्हें ले जाओ, मुझे रोटियाँ दे जाओ।’ तब वह आता है, पैसे उठाकर ले जाता है, रोटियाँ दे जाता है।”
स्वामीजी ने कहा,”रोटी तो आ गई, परन्तु आप खाते कैसे हो ?”
वह बोला,”स्वयं तो मैं खा नहीं सकता। रोटी सामने पड़ी रहती है। तब मैं सड़क पर जाने वालों को आवाज देता हूँ सामने जाने वाले ! प्रभु करे तुम्हारे हाथ सदा स्थिर रहें। मुझ पर दया करो, तरस खाओ मुझ पर, मुझे रोटी खिला दो। मेरे हाथ नहीं हैं।’ प्रत्येक व्यक्ति तो सुनता नहीं, परन्तु किसी-किसी को दया आ जाती है। वह प्रभु का प्यारा मेरे पास आ बैठता है। अपने हाथ से ग्रास तोड़कर मेरे मुँह में डालता है और मैं खाता हूँ।”
उसकी आँखों में आँसू थे। स्वामीजी का दिल भर आया, फिर भी उन्होंने पूछा,”रोटी तो इस प्रकार खा लेते हो भाई, परन्तु पानी कैसे पीते हो ?”
वह बोला, “सामने घड़ा रखा है न ? उसके पास जाता हूँ। बैठकर एक टाँग से इसको सहारा देता हूँ, दूसरी से इसके मुँह के नीचे प्याला करता हूँ और प्याले में पानी आ जाता है।”
स्वामीजी ने फिर पूछा,”पीते कैसे हो ?”
वह बोला, “पशुओं की भाँति प्याले पर झुककर पीता हूँ।”
स्वामीजी बोले, “परन्तु यहाँ मच्छर भी तो बहुत हैं। यदि माथे पर या शरीर पर मच्छर काटते हैं तो फिर क्या करते हो ?”
वह बोला, “मच्छर तो सचमुच बहुत हैं। मेरे शरीर देखो, माथा देखो, सबको मच्छरों ने लहूलुहान कर रखा है। माथे पर कोई मच्छर चढ़ जाए तो माथे को जमीन पर रगड़ता हूँ और शरीर के दूसरे भाग पर चढ़ जाए तो पानी से निकली हुई मछली की भाँति भूमि पर लोटता हूँ, तड़पता हूँ।”
स्वामीजी सोचने लगे कि वास्तव में हमारा शरीर बहुत ही मूल्यवान है। हमें इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए।
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स्वामी विवेकानंद की कहानी
इंद्रियों को वश में करो
एक दिन स्वामीजी ने एक व्यक्ति को टोकरी में रखकर नीबू बेचते हुए देखा। पीले रंग के रसभरे नीबू थे। मुख में पानी आ गया। जिह्वा (जुवान) ने कहा, ‘क्रय कर लो, उनका स्वाद बहुत उत्तम है।’
स्वामीजी थोड़ी देर रुके, फिर आगे बढ़ गए। आगे जाकर जिह्वा फिर मचली, उसने कहा, ‘नीबू अच्छे तो थे, नीबू खाने में हानि क्या है ?’
स्वामीजी उलटे लौट आए, नीबुओं को देखा। वास्तव में वे बहुत उत्तम थे। उन्हें देखकर फिर घर की ओर चल पड़े। थोड़ी दूर गए तो जिह्वा फिर चिल्ला उठी, ‘नीबू का रस तो बहुत अच्छा है। नीबू तो खाने की चीज है। उसे खाने में पाप क्या है ?”
स्वामीजी पुनः नीबूवाले के पास आ गए। दो नीबू मोल ले लिए। घर पहुँचे। माँ से कहा, “चाकू लाओ, “माँ ने चाकू लाकर रख दिया। स्वामीजी चाकू को नीबू के पास और दोनों को अपने समझ रखकर बैठ गए। बैठे रहे, देखते रहे। अंदर से आवाज आई, इन्हें काटो, काटने में क्या हानि है ?”
स्वामीजी ने चाकू उठाया और एक नीबू को काट दिया। मुख में पानी भर आया। अंदर से प्रेरणा हुई, ‘इसे चखकर तो देखो, इसका रस बहुत उत्तम है।”
स्वामीजी ने एक टुकड़े को उठा लिया, जिह्वा के समीप ले गए। नीबू को उसके साथ लगने नहीं दिया। अंदर से किसी ने पुकारकर कहा, ‘तू इस जिव्हा का दास है ? जो यह जिह्वा कहेगी, वही करेगा ? जिह्वा तेरी है, तू जिह्वा का नहीं।’
समीप खड़ी माँ ने कहा, ‘विले, यह क्या करते हो ? नीबू को लाए, इसे काटा, अब खाते क्यों नहीं ?”
जिह्वा ने कहा, ‘शीघ्रता करो। नीबू का स्वाद बहुत उत्तम है।”
स्वामीजी शीघ्रता से उठे। कटे और बिना कटे नीबुओं को उठाकर गली में फेंक दिया और प्रसन्नता से नाच उठे, “मैं जीत गया।” उन्होंने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी।
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स्वामी विवेकानंद की कहानी
पहले मन को निर्मल करो
एक दिन स्वामीजी किसी घर में भिक्षा माँगने गए। घर की देवी ने भिक्षा दी और हाथ जोड़कर बोली, “स्वामीजी, कोई उपदेश दीजिए।”
स्वामीजी ने कहा, “आज नहीं, कल उपदेश दूँगा।”
देवी ने कहा, “तो कल भी यहीं से भिक्षा दीजिए।”
दूसरे दिन जब स्वामीजी भिक्षा लेने के लिए चलने लगे तो अपने कमंडलु में कुछ गोबर भर लिया, कुछ कूड़ा, कुछ कंकड़। कमंडलु लेकर देवी के घर पहुँचें। देवी ने उस दिन बहुत अच्छी खीर बनाई थी उनके लिए, उसमें बादाम और पिस्टे डाले थे। स्वामीजी ने आवाज दी, ” ओम् तत् सत् !”
देवी खीर का कटोरा लेकर बाहर आई। स्वामीजी ने अपना कमंडलु आगे कर दिया। देवी उसमें खीर डालने लगी तो देखा कि उसमें गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है ! वह रूककर बोली, “स्वामीजी, यह कमंडलु तो गंदा है।”
स्वामीजी ने कहा, “हाँ, गंदा तो है। इसमें गोबर है, कूड़ा है, कंकड़ है, परन्तु अब करना क्या है ! खीर भी इसी में डाल दो।”
देवी ने कहा, “नहीं स्वामीजी, इसमें डालने से तो खीर खराब हो जाएगी। मुझे दीजिये यह कमंडलु, मैं इसे साफ कर देती हूँ।”
स्वामीजी बोले, “अच्छा माँ, तब डालेगी खीर, जब कूड़ा-कंकड़ साफ हो जाएगा।”
देवी बोली, “हाँ।”
स्वामीजी बोले, “यही तो मेरा उपदेश है। मन में जब तक चिंताओं का कूड़ा-करकट और संस्कारों का गोबर भरा है, तब तक उपदेश के अमृत का लाभ नहीं होगा। उपदेश का अमृत प्राप्त करना है तो इससे पूर्व मन को शुद्ध करना चाहिए। चिंताओं को दूर कर देना चाहिए, बुरे संस्कारों को समाप्त कर देना चाहिए। तभी वहां ईश्वर का नाम चमक सकता है और तभी सुख और आनंद की ज्योति जाग उठती है।”
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स्वामी विवेकानंद की कहानी
बाँटकर खाओ
एक बार स्वामीजी एक सेठजी के पास दान लेने गए।
सेठ साहब ने कहा, “आप पहले मुझसे बात कर लीजिए। मेरे साथ खाना भी खाइए।”
स्वामीजी ने कहा, “बहुत अच्छा !”
स्वामीजी भोजन के समय उनके पास पहुँचे। भोजन तो ठीक था, परन्तु सेठजी की थाली थी चाँदी की। उसमें एक कटोरा भी चाँदी का था। थाली में जापानी गुब्बारे के सामान फूला एक फुलका पड़ा था। चाँदी के कटोरे में थोड़ा सा पीला पानी था। पता लगा कि सेठजी यही एक फुलका और पीला पानी खाएँगे। आश्चर्य के साथ स्वामीजी ने पूछा, “सेठजी, आप इतना ही खाते हैं ?”
सेठजी बोले, “हाँ, इससे अधिक पचता नहीं।”
स्वामीजी ने कहा, “कोई मक्खन या दूध तो लेते ही होंगे प्रातः ?”
सेठजी बोले, “राम-राम करो जी ! मेरे छोटे भाई ने एक बार दूध पिया था, पेट में बादल जैसे गरजने लगे। तब से हमारे घर में कोई दूध नहीं पीता।”
स्वामीजी ने कहा, “लस्सी तो पीते होंगे आप ?”
सेठजी बोले, “एक बार दो दिन लस्सी पी ली थी। महीना-भर-जुकाम रहा, इसके बाद कभी नहीं पी।”
स्वामीजी ने कहा, “बादाम, पिस्ता, किशमिश तो कहते होंगे कभी ?”
सेठजी बोले, “बादाम पचते नहीं। पिस्ता बहुत गर्म होता है। किशमिश में जानता नहीं कि क्या होती है।”
स्वामीजी ने कहा, “फिर फल खा लिया करो।”
सेठजी बोले, “वे मेरे अनुकूल नहीं बैठते।”
स्वामीजी ने मन-ही-मन में कहा, “फिर संखिया खाओ, वही तुम्हारे लिए रह गया है।”
यह है कम्युनिज्म का वास्तविक कारण। ये लोग न स्वयं खाते हैं। न दूसरों को खिला सकते हैं। यह नहीं करते कि स्वयं न खा सकें तो दूसरों को ही खिला दें। दुनिया में भूख न रहने दें, गरीबी न रहने दें। इनके गलत दृष्टिकोण से कम्युनिज्म पैदा होता है।
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स्वामी विवेकानंद जैसा बुद्धिमान
एक दिन स्वामी विवेकानंद के एक शिष्य ने उनसे पूछा, “गुरुदेव, अगर मैं आपके समान बुद्धिमान बनना चाहता हूं तो मुझे क्या करना चाहिए?”
स्वामी विवेकानंद ने उत्तर दिया, “यदि तुम मुझसे बुद्धिमान होना चाहते हो तो तुम्हें इससे पहले उस व्यक्ति को जानना होगा जो तुम्हारे आसपास होता है लेकिन तुम उसे ध्यान नहीं देते।”
उस शिष्य ने पूछा, “कौन सा व्यक्ति होता है?”
स्वामी विवेकानंद ने कहा, “वह व्यक्ति होता है जिसे तुम दैनिक रूप से मिलते हो, तुम्हें परेशान करता हो, तुम्हें तंग करता हो, तुम्हें समझाने की कोशिश करता हो लेकिन तुम उसे नजरअंदाज करते हो। तुम्हें उसे ध्यान देना होगा और समझना होगा कि उसमें भी ईश्वर का वास होता है जैसा कि तुममें होता है।”
यह शिक्षा उस शिष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण रही और वह उस दिन से अपने आसपास के लोगों को समझने लगा।
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