स्वामी विवेकानंद की प्रेरक कहानियां
मोह ममता की रस्सी
काशी में कुछ पंडित थे। जब एक पर्व समीप आया तो उन्होंने सोचा, “चलो, यह पर्व प्रयागराज में चलकर मनाएँ। वे एक बहुत बड़ी और अच्छी सी नाव में बैठ गए। सायंकाल का समय था, रात्रि होने वाली थी. अंधेरा बढ़ता जा रहा था।
सबने सोचा, ‘रात भर नौका चलाएँगे। प्रातः प्रयागराज में पहुंचकर स्नान करेंगे, पर्व मनाएँगे। काशी के कुछ लोगों को भांग बहुत प्यारी होती है। इसलिए नौका में भांग का भी प्रबंध था।
सब लोगों भांग पी, गीत गाने लगे। कुछ लोग चप्पू चलाने लगे। खूब मस्ती के साथ वे गीत गए रहे थे, खूब जोश के साथ चप्पू चला रहे थे। पहले लोग थक जाते तो दूसरे लोग चप्पू चलाने लगते। बीच-बीच में भांग भी पीते, मिठाई भी खाते, लगातार चप्पू भी चलाते। रात्रि हो गई, तारे निकल आए।
वे चप्पू चलाते रहे, खूब मजे से गीत भी गाते रहे। प्रातः काल का प्रकाश हुआ तो एक व्यक्ति ने कहा, “अब तो दिन निकलने वाला है। प्रयागराज आ गया होगा। तनिक उठकर देखो तो सही कि कहाँ तक पहुँचे हैं।”
तब एक व्यक्ति उठा। सामने वाले किनारे को देखकर बोला, “मुझे तो यह काशीजी का घाट प्रतीत होता है।”
दूसरे बहुत जोर से हँस पड़े; बोले, “प्रतीत होता है, भांग अधिक पी गया है। इसे प्रयाग में भी काशी दिखाई देती है।”
एक पुरोहितजी थे। उनसे कहा गया, “आप उठकर देखो, पुरोहित जी ! यह व्यक्ति तो भांग के नशे में है।”
पुरोहित जी आंखे मलते हुए उठे। आँखे फाड़कर उन्होंने सामने देखा। धीमी से आवाज में बोले, “शायद मैं भी नशे में हूँ। मुझे तो यह काशी का घाट प्रतीत होता है।
सब लोग फिर हंस पड़े, ” यह तो नशे में हैं। हम रात भर चलते रहे और इसे अभी तक काशी दिखाई देती है। तुम उठो भाई ! तुम देखो तनिक ध्यान से।”
तभी वहां विवेकानंद स्नान करने के लिए आ गए और उन पंडितों से बोले, “तुम सचमुच काशीजी के घाट पर ही हो।”
फिर एक-एक करके सबने देखा कि नाव उसी घाट पर खड़ी है, जहाँ पर वे सायंकाल नाव में बैठे थे। परन्तु यह हुआ कैसे ? रात भर वे चप्पू चलाते रहे, फिर नाव जहाँ की तहाँ किस प्रकार खड़ी रही थी ?
तब स्वामीजी बोले, “अरे, देखो, जिस कील के साथ नाव की रस्सी बंधी थी, अब भी उसके साथ बंधी है। भांग के नशे में तुम लोग रस्सी को खोलना ही भूल गए। अरे ओ चप्पू चलाने वालो, इस रस्सी को तो खोलो।
मोह और ममता का राग और लगाव की यह रस्सी से तुमने अपनी नाव बांध रखी है, उसे खोले बिना, उससे छुटकारा पाए बिना, तुम्हारे चप्पू चलाने पर भी यह नौका गंतवय तक पहुँचेगी नहीं।”
स्वामी विवेकानंद की प्रेरक कहानियां
सदा प्रसन्न रहो
अपनी यात्रा के दौरान एक बार स्वामीजी एक सज्जन के यहाँ ठहरे थे। श्रीमानजी दफ्तर गए हुए थे। दिन भर घर के अंदर हँसी के ठहाके गूँजते रहे। परन्तु जैसे ही साढ़े चार बजे, वैसे ही एक बच्चे ने कहा, “अरे पिताजी के आने का समय हो गया है।”
दूसरे ने कहा, “समय क्या, सामने सड़क पर तो आ रहे हैं वे।”
जल्दी से एक बच्चा सोफे के नीचे जा छुपा, एक पलंग के नीचे घुस गया, एक मेज के नीचे चला गया। हर ओर सन्नाटा छा गया। श्रीमानजी बड़े रोब से आए और सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए।
स्वामीजी ने पूछा, “तुम्हारे बच्चे तुमसे इतना क्यों डरते हैं ? वह देखो, तुम्हें आता देखकर एक मेज के नीचे जा छिपा है। एक सोफे के पीछे दुबका पड़ा है। एक पलंग के नीचे घुस गया है।”
वे श्रीमान जी मुस्करा भी नहीं सके, बोले, “मैं घर में तनिक रोब से रहता हूँ। इससे घर का वातावरण शांत रहता है।”
स्वामीजी ने कहा, “तुम्हारा घर है या सेन्ट्रल जेल ? यह क्या रोब जमा रखा है तुमने कि तुम आओ और बच्चों के प्राण सूख जाएँ। अरे, होना तो यह चाहिए कि तुम आओ, बच्चे चिपक जाएँ, कोई सिर पर चढ़ जाए और कोई हाथ पकड़ ले, कोई कंधे पर बैठे। ऐसा करने से तुम्हारा भी रक्त बढ़ेगा और बच्चों का भी। हमारे वेदों में भी कहा गया है – सदा प्रसन्न रहो। जो प्रसन्न नहीं रहता, उसे गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होने का, उसमें रहने का कोई अधिकार नहीं।
गुरु की उदासी
एक दिन श्रीरामकृष्ण भक्त के स्वभाव को चातक का दृष्टांत देकर समझा रहे थे, “चातक जिस प्रकार अपनी प्यास बुझाने के लिए बादल की ओर ही ताकता रहता है और उसी पर पूर्णतया निर्भर रहता है, उसी प्रकार भक्त भी अपने दृदय की प्यास और सब प्रकार के अभावों की पूर्ति के लिए केवल ईश्वर पर ही निर्भर रहता है।”
नरेंद्रनाथ उस समय वहाँ बैठे थे, एकाएक बोल उठे, महाराज, यद्यपि यह प्रसिद्द है कि चातक पक्षी वर्षा का जल छोड़कर और कोई जल नहीं पीता, परन्तु फिर भी यह बात सत्य नहीं है, अन्य पक्षियों की तरह नदी आदि जलाशयों में भी जल पीकर वह अपनी प्यास बुझाता है। मैंने चातक को इस तरह जल पीते हुए देखा है।”
श्रीरामकृष्ण देव् ने कहा, “अच्छा ! चातक अन्य पक्षियों की तरह धरती का जल भी पीता है ? तब तो मेरी इतने दिनों की धारणा मिथ्या हो गई। जब तूने देखा है तो फिर उस विषय में मैं संदेह नहीं कर सकता।” बालक तुल्य स्वभाव वाले श्रीरामकृष्ण देव् इतना कहकर ही निश्चिन्त नहीं हुए, वे सोचने लगे-यह धारणा जब मिथ्या प्रमाणित हुई, तो दूसरी धारणाएँ भी मिथ्या हो सकती हैं। यह विचार मन में आने पर वे बहुत उदास हो गए।
कुछ दिन बाद नरेंद्र ने एक दिन उन्हें एकाएक पुकारकर कहा, “वह देखिए महाराज, चातक गंगाजी का जल पी रहा है।” श्रीरामकृष्ण देव् जब देखने आए और बोले, “कहाँ रे ? नरेंद्र के दिखाने पर उन्होंने देखा, एक छोटा सा चमगादङ पानी पी रहा है। तब वे हँसते हुए बोले, “यह तो चमगादङ है रे ! अरे मुर्ख, तू चमगादङ को चातक समझता है और मुझे इतने बड़े सोच में डाल दिया। अब मैं तेरी किसी बात पर विश्वास नहीं करूँगा।”
श्रीरामकृष्ण के साकार देव-देवियों और उनके क्रियाकलापों के प्रति पूर्ण विश्वासी होने पर भी नरेन्द्रनाथ का इन सब पर विश्वास नहीं था। वे कह उठते-घरूप-दूप आपके मस्तिष्क का भ्रम है।”
नरेंद्र की सत्यवादिता के संबंध में दृढ़ निश्चयी श्रीरामकृष्ण इस प्रकार हतबुद्धि होकर माँ काली से निवेदन करते, “माँ, नरेंद्र कहता है, यह सब मेरे मस्तिष्क का भ्रम है। क्या यह सच है ?” माँ इस प्रकार उन्हें समझाकर कहतीं, नहीं, वह सब ठीक है, भ्रम नहीं है। नरेंद्र बच्चा है, इसलिए ऐसा कहता है।” इस प्रकार वह आश्वस्त मन से लौटकर नरेंद्र सुना देते, “तेरी जैसी इच्छा हो, वैसा भले ही बोल, किन्तु मैं उस पर विश्वास नहीं करता।”
श्रीरामकृष्ण नरेंद्र की इस प्रकार की उक्ति से साधारणतया असंतुष्ट नहीं होते थे, फिर भी नरेंद्र के कल्याण के लिए सदैव चुप ही रहते, ऐसा भी नहीं था। श्रीरामकृष्ण के विश्वास को हिला नहीं पाने पर तथा श्रीरामकृष्ण के द्वारा उनकी बात नहीं मानने पर नरेंद्र उनकी ऐसी बातों पर संदेह प्रकट करते। उन दिनों की बातों का स्मरण कर श्रीरामकृष्ण ने एक दिन भक्तों से कहा था, “माँ काली उसके जी में जो आता था वही कहता था, मैंने चिढ़कर एक दिन कहा था, “मुर्ख, तू अब यहाँ न आना।”
The End – स्वामी विवेकानंद की प्रेरक कहानियां
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